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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। कीदृग्गन्धं कियन्मूल्यं, हठात्पृष्टः पुनः पुनः । तदोवाच शिरो धुन्वन् , नैव पर्वणि युज्यते ॥ ८९ ॥ भाविवशाच्च दाक्षिण्या-दीहङ् मूल्याद्युवाच सः। श्रुत्वा पूज्योतिगर्वेण, तद्धास्यमकरोत्कुधीः ॥९० ॥
फिर रत्नविजयजीने अपने मंत्र, ज्योतिष, आदि चमत्कारके बलसे जोधपुर-बीकानेरके नरेशोंसे सोनेकी छड़ी, दुशाले, आदि श्रीधरणेन्द्रसूरिजीको भेंट करवाये ।। ८६ ॥
सज्जनगण ! संवत् १९२३ का चातुर्मास श्रीपूज्यजीका पं० रत्नविजयजी आदि ५० यतियोंके सहित घाणेरावमें हुआ ॥ ८७ ॥ वहां श्रीपूज्यजीने भरपर्युपणमें इत्र खरीदकर
१-कारण कि-यति सिद्धिविजयजी के समयसे इन दोनों नरेशोंके ओरसे तपागच्छीय श्रीपूज्यों को छड़ी, चामर, आदि भेंट बन्द होगई थी । वही आपने अपनी प्रतिभासे धरणेन्द्रसूरिजीको फिरसे दिलवाना प्रारंभ करवा दी। श्रीपूज्यों में यह प्रथा सम्राट अकबरसे प्रचलित है । श्रीहीरविजयसूरिजीने अकबरको धर्मोपदेश दिया, जिससे प्रसन्न होकर अकबरने सूरिजी की इच्छा न होने पर भी, अपनी भक्तिके स्मरण स्वरूपपालखी, चामर, छड़ी आदि राजसी उपकरण भेंट किया था, जो संघकी इच्छासे आचार्यके आगे आगे चलता रहा । कालान्तरमें शिथिलताके कारण श्रीपूज्य-दयासूरि, किसी किसीके मतसे श्रीपूज्य-विजयप्रभसूरि पालखीमें बैठने लगे। तभीसे यह परिपाटी श्रीपूज्यों में आज पर्यन्त प्रचलित है।