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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। श्रीधरणेन्द्रसूरिजी ने, पंन्यासजीके सद्गुणोंसे अति खुश होकर विद्यागुरू श्रीरत्नविजयजीकी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिये दफ्तरीका पद दिया ॥ ८४ ॥ क्योंकि-गुणवान् नर ही गुणीके गुणोंको जान सकता है, निर्गुणी नहीं, बलवान् बलिष्ठके बलको जान सकता है लेकिन निर्वली नहीं, जैसे वसंतऋतुके गुणोंको कोकिल जानती है, किन्तु कौआ नहीं, एवं सिंहका बल भी हाथी ही जान सकता है पर चूहा नहीं ॥ ८५ ।। मन्त्रज्योतिश्चमत्कारैः, स्वर्णयष्ट्यादिसपटान् । योधपुर-बिकानेर,-भूपाभ्यां यो व्यतीतरत् ।। ८६॥
१० श्रीपूज्याद्वालुकवादे पृथग् भवनम् ,
(श्रीपूज्यानां शिथिलताचरणं च ) रामाक्षिनेन्दभूदर्षे, घाणेरावाख्यपत्तने । पूज्यस्याऽभूचतुर्मासी, पश्चाशद्यतिभिस्सह ॥ ८७ ॥ प्राप्ते पर्युषणे क्रीत-मैलेयं तेन सूरिणा। पंन्यासस्तत्परीक्षायै, समाहूतो द्रुतं मुदा ॥ ८८ ॥
१-श्रीपूज्यों में दफ्तरीका पद सम्माननीय माना जाता है, या यों समझिये कि यही एक श्रीपूज्योंका अमात्य है। अपराधी यतियोंको दण्ड देना, उपाध्याय, पंन्यास, गणिपद आदिका पट्टा लिखना, चातुर्मासका आदेश-पत्र देना और श्रीपूज्य संबन्धी सम्पत्तिके आय-व्ययका हिसाब रखना, यह सब दफ्तरी के अधिकार में ही रहता है ।