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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
उसकी परीक्षाके वास्ते सहर्ष श्रीरत्नविजयजीको बुलाये || ८८ || और वार वार उनसे पूछा कि यह इत्र कैसा सुगन्धि व कितना कीमती है ? उस समय वैराग्य वश शिर कम्पाते हुए पंन्यासजी बोले कि ऐसे उत्तम पर्व में विषयपौष्टिक इत्र खरीदना बिल्कुल उचित नहीं है। क्योंकि - यत्र विरागस्तत्र सरागः कथमिति नीतेः ।। ८९ ।। फिर भावी योगसे श्रीपूज्यजी के साग्रह पूछने पर रत्नविजयजी दाक्षियतासे वोले कि - यह इत्र इतना कीमती ऐसा सुगन्धि है इत्यादि सुनकर कुमतिवश श्रीपूज्यजीने अतिगर्व से पंन्यासजीका उपहास्य किया ।। ९० ।।
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यतः - " षडेते मूर्खचिह्नानि गर्यो दुर्वचनं मुखे । विरोधी विषवादी च कृत्याकृत्यं न मन्यते ॥ ९१ ॥
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यौवनं धनसम्पत्तिः, प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तच्चतुष्टयम् ॥९२॥ विषयेऽस्मिन् विवादोऽभूत्, पूज्य - पंन्यासयोस्तदा । पूज्येनोक्तं विवादान्ते, मर्मवाक्यं सुधा यथा ॥ ९३ ॥ लिष्टा यदि ते शक्ति- र्भवेत्पूज्यो भवानपि । नवशिक्षासमाचार्या -मस्याऽऽनेतुमचिन्तयत् ||१४||
लेकिन नीतिवाक्य है कि अहंकार रखना, मुखसे कुबचन बोलना, विरोध करना, टण्टा - फिसाद करना, और कर्त्तव्य अकर्तव्य नहीं मानना ये छहों मूखोंके चिह्न हैं ॥९१॥