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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
भी मानेंगे || १०९ ॥ बादमें वे दोनों श्री राजेन्द्रसूरिजीको वन्दना करके ऐसे बोले कि हे सुमतिन् ! गच्छका सब शुभाशुभका भार आपश्रीके ही शिर पर है ।। ११० ।। थोड़ेके वास्ते बहुतसा नुकसान करना आप जैसे सत्पुरुषोंके लिये योग्य नहीं है, आपने ही यह वाड़ी प्रफुल्लित की है तो इस वक्त में उसका नाश कैसे करते हैं ? ॥ १११ ॥ श्रीपूज्यजी इस प्रकार सुनकर दयार्द्र चित्तसे बोले कि मेरी आत्मा साफ इस श्री पूज्यकी उपाधि से सदैव खींजती है याने महादुःखी होती है ॥ ११२ ॥
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भोः ! क्रियोद्धारकर्तास्मि, कल्याणार्थं निजात्मनः । नवधात्मकगच्छीय- समाचार्यां चलेद्यदि ॥ ११३ ॥
१३ - श्री पूज्येन समाचारीस्वीकारणम्
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तथाह्यावश्यकं संधैः सार्धं व्याख्यानवाचनम् । जिनगेहं च गन्तव्यं, याप्ययानादिकं विना ॥ ११४ ॥ विनोपकरणं साधो-नैव स्वर्णादिभूषणम् । यतयः परिदध्युश्च कार्या स्थापनलेखना ॥ ११५ ॥ यन्त्रमन्त्रादिकं कृत्यं, नाऽनुष्ठेयं तथाऽमुना । व्येतव्यं ह्यधिकं नैव, नाऽऽरोहेच्च हयानसी ॥ ११६ ॥ नाऽलङ्कारं स्पृशेज्जातु नो दध्यात् क्षुरिकादिकम् । नrseपेच स्त्रिया सार्धं, विजने तां न पाठयेत् ॥११७॥