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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। एकादित्र्यन्तके त्वेवं, स्वहस्तेम क्रियोद्धतिम् । तृतीयेऽध्ययने वक्ति, महानिशीथ आगमः॥ १३७ ॥ तत्र साधुसमाचारी, नैव नश्यति सर्वथा । कुरुतेऽतः स्वहस्तेन, क्रियोद्धारं हि नान्यथा ॥१३८॥
उस समय अनेक गाँवोंके हजारों की संख्या में श्रीसंघ उपस्थित थे, उन श्रीसंघके मुंहसे आपश्रीके नामका जय जय शब्दोचारने सारे शहरको गुंजा दिया था । तदनन्तर संसारवर्धक सब उपाधियोंको छोड़कर सच्चे पञ्च महाव्रतधारी वे गुरुमहाराज भव्यजीवोंके उपकारार्थ सुशिष्य युक्त विचरते हुए। यहाँ कोई प्रश्न पूछे कि-श्रीराजेन्द्रसूरिजीने आगमोंको जानते हुए भी किसी सांभोगिक गुरुके विना अपने हाथसे ही क्रियोद्धार कैसे किया ? | उसको जवाब दिया जाता है कि-यदि स्वगच्छमें सात आठ गुरुकी परंपरामें कुशील बढ़ गया हो तो क्रियोद्धार कर्ता सत्पुरुषोंको अवश्य दूसरा गुरू करना योग्य है । एक दो और तीन गुरूकी परंपरामें खुदके हाथसे क्रियोद्धार कर सकता है, इस प्रकार महानिशीथ सूत्रके तीसरे अध्ययन में अधिकार है । तीन गुरू तककी परंपरामें सर्वथा समाचारी नष्ट नहीं होती, अतः स्वहस्तसे भी क्रियो। द्धार कर सकता है, इससे विपरीत हो तो नहीं कर सकता ॥ ॥ १३३ ॥ १३४ ॥१३५ ॥ १३६ ।। १३७ ॥ १३८ ॥