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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी । ततो देवेन्द्रसूरिस्त्वा-हारं त्यक्त्वा समाधिना । श्रीराधनपुरे रम्ये, सद्ध्यानेन दिवं ययौ ॥ ७९ ॥
___९-श्रीधरणेन्द्रसूरिपाठनम्स धरणेन्द्रसूरिश्च, रत्नविजयमाह्वयत् । गुर्वादेशान्मिथःप्रीत्या, सोऽप्यागच्छत्तदन्तिक॥८॥
और पंन्यास पद प्रदान करवाया, फिर श्रीपूज्यजीने श्रीरत्नविजयजीसे कहा कि-मेरा आयु तो समीप आगया है, मैंने मेरे पाटपर शिष्य धीरविजयको धरणेन्द्रसूरि नामसे विभूषितकर स्थापन किया है, अभी इसकी लघु वय है वास्ते इसको अनेक सुशिक्षाएं देना व पढ़ाना और इसका कुल कार्य तुमको ही करना होगा । यह सुनकर विनीत पं० रत्नविजयजीने कहा कि-इसी मुजब करूंगा ॥ ७५ ॥ ७६ ॥ ७७ ॥ और शिष्य विजयधरणेन्द्रसूरिजीसे भी कहा कि-तुम पं० रत्नविजयजीकी आज्ञामें चलना विद्याभ्यास भी जरूर करना । उन्होंने उनके वचनोंको स्वीकार किया ॥७८ ॥ बाद श्रीदेवेन्द्रसूरिजी चारों आहारका त्यागकर शुभ ध्यान पूर्वक समाधिसे राधनपुरमें स्वर्ग गए ॥ ७९ ॥
तदनन्तर श्रीधरणेन्द्रसूरिजीने श्रीरत्नविजयजीको बुलाया, और वो भी परस्पर अतिप्रीति होनेसे गुरू के आदेशसे श्रीपूज्यजीके पास आए ॥ ८० ॥