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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। जगज्जिघत्सुनाऽनेन, कालेन कवलीकृतौ । पितरौ ज्ञानवैराग्या-नाऽशोचिष्टामुभावलम् ॥६०॥ यतः-कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ६१ ॥
द्रव्याणि भूमौ पशवश्च गोष्टे, __ भार्या गृहद्वारि जनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे,
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥६२॥ दोनों भाई कुछ समय ठहरकर फिर सहर्ष मा बाप की आज्ञा युक्त धनोपार्जनके लिये सिंहलद्वीप (शिलोन) गए ॥ ५८ ।। वे यथेच्छ धन कमाकर कलकत्तादि नगरों का अवलोकन कर फिर शीघ्र ही मातापिता की सेवा की इच्छासे घर आए ।। ५९ ॥ अपने वृद्धतम मातापिता की दिलोजान से कुछ दिन तक सेवा की । बाद में तीन जगत को खानेवाले कालसे वे कवलित हुए। दोनों भाईयोंने सशोक हो उनका अग्निसंस्कारादि कार्य किया। दोनों भाई समझदार थे वास्ते ज्ञानवैरागसे अधिकतर शोक संताप नहीं किया ॥ ६० ॥ क्योंकि-काल जीवोंको पचाता है, प्रजा को हरण करता है, सबके सोने पर खुद जागता रहता है, वास्ते काल दुलंघनीय है ॥६१ ॥ भूमिमें धन, गोस्थानमें पशुवर्ग, घरके दरबाजे तक स्त्री, अपने सगेवाले लोग श्मशान तक,