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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। तत्र पारिखगोत्रीय, ओसवंशैकभूषणः। सुशीलो ज्ञानसम्पन्नः, श्रद्धादयोऽखिलतत्त्ववित्।२७) त्यागी लोकविरुद्धस्य, श्राद्धषट्कर्मसाधकः । श्रेष्ठी ऋषभदासोऽभूत्, सम्मतः किल नागरैः ॥२८॥ अनुकूला सदा तुष्टा, दक्षा साध्वी पतिव्रता । केसरी तस्य सद्भार्या, शीलालङ्कारभूषिता ॥ २९ ॥ गर्भाधानेऽथ साऽद्राक्षीत् , स्वप्ने रत्नं महोत्तमम् । तत्प्रभावात्ततोऽनेके, तस्या जाताः सुदोहदाः ॥३०॥ प्रीत्या पपार सुश्रेष्ठी, तान् सश्चि तदैव सः । गर्भरक्षां प्रचक्रे सा, ह्यप्रमादा यथाविधि ॥३१॥
वहीं पर पारिखगोत्रीय ओसवंश में एक अलङ्कार रूप, सदाचारी, ज्ञानी, देवगुरुधर्म में श्रद्धालु, पूर्ण तत्त्वके जानकार, लोकमें विरुद्ध कार्य के त्यागी, श्रावक के छहों कर्म के साधक, और नगर के लोगों से माननीय श्रेष्ठिवर्य ऋषभदासजी बसते थे ॥ २७-२८ ॥ अनुकूल, सदैव प्रसन्न, चतुर, सुशीला, पतिव्रत धर्म को पालने वाली और शीलरूपी भूषणों से सुशोभित, उनके केसरी नामा स्त्री थी ॥ २९ ॥ उसने गर्भावस्थामें स्वममें सर्वोत्तम रत्न को देखा, उसके प्रभाव से अनेक उत्तम उत्तम दोहद उत्पन्न हुए ॥३०॥ उन सबको वह शेठ शीघ्र ही सप्रेम पूर्ण करता था और केसरी भी प्रमाद रहित सविधिगर्भ का पालन करने लगी ॥३१॥