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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी ।
यतः - "यो गुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणरागी च, सरलो विरलो जनः ॥ २० ॥ विद्वानेव विजानाति, विद्वज्जनपरिश्रमम् । नहि वन्ध्या विजानाति, गुर्वी प्रसववेदनाम्" ॥२१॥ इत्थंकारेण लोकेऽस्मिन् जातं पारिखगोत्रकम् । इतिहासेन तद्वत्तं प्रोक्तं बोधरसप्रदम्
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॥२२॥
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३ गुरुजन्मादिपरिचयःअथाऽस्मिन्नेव सद्गोत्रे, पूज्यरत्नस्य सद्गुरोः । समुत्पत्तिः कथं जाता ?, चात्र स्वल्पेन सोच्यते ॥ २३ ॥
उस वक्त में गुणी सच्चे तच्च के जानकार सभी लोग अत्यन्त धन्यवाद युक्त उस की खूब प्रशंसा करने लगे ॥ १९ ॥ क्योंकि - जो गुणी है वह गुणी को जान सकता है, और कोई गुणी गुणी में ईर्ष्या भी रखता है । लेकिन गुणी और गुण का रागी सीधा मनवाला कोई कहीं होता है ॥ २० ॥ पण्डित ही पण्डिताई का परिश्रम जान सकता है, किन्तु मूर्ख नहीं । जैसे वन्ध्या स्त्री पुत्र जनने के दुःख को नहीं जान सकती ||२१|| संसार में इस प्रकार पारिखवंश उत्पन्न हुआ, सो श्रोता जनों के लिये ज्ञानरसप्रद यत्किञ्चित् कहा || २२ || अब इसी पारिखवंश में पूज्यों में रत्न के समान चरित्र - नायक गुरुमहाराज की उत्पत्ति कैसे हुई ? वह यहाँ संक्षेपसे कहते हैं ॥ २३ ॥
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