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श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी। स श्रीमालं ततोऽपृच्छत्, तेनोक्तं चैवमेव हे!। पासूज्याख्यं विना राजन् !,दृष्टो नेहक परीक्षकः।।१५।। यदिनान्मेऽस्ति पार्श्वेऽदो, द्वे भार्ये मम मम्रतुः। अथेदं भूप ! विक्रीय, पुनर्लग्नं हि कामये ॥१६॥ श्रीमालोदन्तमाकर्ण्य, नृपः स्वान्तेऽहषत्तदा । वाहवाहेत्यवक् तस्मै, सुन्दरोऽसि परीक्षकः ॥१७॥ तघस्रात्पारिखाख्येन, नित्यं भूपस्तमाह्वयत् । तथैवामुं प्रजाप्यूचे, सास्ति राजानुगामिनी ॥१८॥
जो कोई इसको पास में रक्खेगा उस की स्त्री मर जायगी, इसमें आप को संदेह हो तो उसके स्वामी को पूछे ।। १४॥ बाद श्रीमाल को पूछा, उसने कहा हे नृप ! इसी प्रकार है, पासूजी के सिवाय ऐसा परीक्षक मैंने कहीं भी नहीं देखा ॥ १५ ॥ जिस दिन से मैंने इसे रक्खा है तो मेरी दो स्त्रियाँ मर गई । अब हे भूप ! इस हीरे को बेचकर फिरसे लग्न करूंगा ॥१६॥ उस वक्त भूप श्रीमाल के मुख से यह वृत्तान्त सुनकर मन में बहुत ही खुश हुआ और बोला कि-वाह वाह तुम अच्छे परीक्षक हो॥१७॥ बस उसी दिनसे वह राजा पारिख नाम से उस के साथ सदैव व्यवहार करने लगा। राजा के अनुकूल चलनेवाले कुल लोग भी वैसा ही कहने लगे ॥१८॥ तदैवात्र गुणज्ञाश्च, सत्यतत्वविदांवराः। प्रसशंसुः समे सभ्या, धन्यवादमदुर्भृशम् ।। १९॥