Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi
Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुरुषार्थसिद्धय पाय ] mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm कारण उन धमामें परस्पर विरोध नहीं रहता, यही बात 'निषिद्धजात्यन्धसिंधुरविधानं' इस तीसरे विशेषणसे प्रगट की गई है।
___ अनेकांत और स्याद्वाद दोनों ही स्थूलदृष्टिसे एक प्रतीत होते हैं, परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचार करनेपर उनमें भिन्नता प्रतीत होती है । 'अंत' नाम धर्मका है, अनेक धर्म जिसमें पाये जाय, उसे 'अनेकांत' कहते हैं । अनेकधर्म द्रव्यमें पाये जाते हैं, इसलिये द्रव्य अनेकांतस्वरूप है। जबकि पदार्थ अनेक ( अनंत) धर्मात्मक है, तो वह अनेक नयोंसे ही विवक्षित हो सकता है । एक नयसे एक धर्मका निरूपण किया जाता है । जहाँ विवक्षित नयोंसे भिन्न भिन्न निरूपण होता है, वहीं कथंचित्वाद अथवा नयवाद कहलाता है। जहां समस्त धर्मोका युगपत् परिज्ञान किया जाता है, वहां अनेकांत अथवा प्रमाणवाद कहलाता है । स्याद्वाद-नयवाद, अनेकांत-प्रमाणवाद. इस रूपमें परस्पर भेद भी है तथा विवक्षावश उनमें अभेद भी है । कारण अनेकांत भी अनेकांतरूप है, इसलिये वह प्रमाण और नय दोनोंसे साध्य है । परमाराध्य श्रीसमंतभद्रस्वामीने वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में श्री अरनाथ तीर्थंकरकी स्तुति करते हुए कहा है "अनेकांतोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः । अनेकांतः प्रमाणात तदेकांतोपितान्नपात् ॥ १०३ ॥” इसी अनेकांत-स्याद्वादसे पदार्थका स्वरूप यथार्थ जाना जाता है, और इसीसे समस्त विरोध दूर होते हैं; ऐसे जैनधर्मके अंतःसारभूत एवं प्राणभूत अनेकांत- स्याद्वादको श्री अमृतचंद्रसूरि महाराजने नमस्कार किया है ।
• ग्रन्थ रचनेकी प्रतिज्ञा और आचार्यका अभिप्राय लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोद्धि यते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥३॥
अन्वयार्थ-(लोकत्रयकनेत्रं ) तीन लोकके समस्त पदार्थीको दिखाने के लिये एकअद्वितीय स्वरूप ( परमागर्म ) उत्कृष्ट आगम-जैनसिद्धांतको (प्रयत्नेन ) परिश्रम
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