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आचार्य देवचन्द्रसूरि को सौंप दिया। आचार्य ने बालक ते पूछा "वत्स! तू हमारा शिष्य बनेगा? चांगदेव ने उत्तर दिया "जी हाँ अवश्य बनूँगा । इस उत्तर ते आचार्य अति प्रसन्न हुए। उन्होंने बालक को कर्णावती में उदयन मन्त्री के पास रख दिया जो उस समय जैन संघ का सबसे बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति था।
चाचिग ने घर लौटकर जब वृतान्त सुना तो वह पुत्र दर्शन की इच्छा से आचार्य के पास गया। उसके मन की बात जानकार उसका मोह दूर करने के लिये आचार्य ने उसे समझाया तथा मंत्रिवर उदयन को भी अपने पास बुलाया। उदयन मंत्री ने उसे अपने घर ले जाकर सत्कारादि के अनंतर उसकी गोद में चांगदेव को बैठाकर पञ्चांग सहित तीन दुशाले एवं तीन लाख रूपये भेंट किये तथा पुत्र की याचना की। तब स्नेह विहवल चाचिग ने कहा"मेरा पुत्र अमूल्य है, किन्तु आपका भक्तिभाव अपेक्षाकृत अधिक अमूल्य है। अतः इस बालक के मूल्य में अपनी भक्ति ही रहने दीजिये । आपके इस द्रव्य को मैं शिवनिर्माल्य के समान स्पर्श भी नहीं कर सकता। चाचिग के कथन को सुनकर उदयन मंत्री बोला "आप अपने पुत्र को मुझे सौंपेंगे, तो उसका कुछ भी अभ्युदय नहीं हो सकेगा", परन्तु यदि इसे आप पूज्यपाद गुरू देवचन्द्राचार्य के चरणों में समर्पित करेंगे तो वह गुरूपद प्राप्तकर बालेन्दु के समान त्रिभुवन में पूज्य होगा।" तब चाचिग ने "आपका वचन ही प्रमाण है, मैंने अपने पुत्र रत्न को गुरूजी को भेंट कर दिया। ऐसा कहकर अपने पुत्र को देवचन्द्रसूरि को सौंप दिया तभी उसका दीक्षा महोत्सव मंत्री