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एक्छुणसट्रिमो संधि
उनसठवीं सन्धि दूतके इस प्रकार वापस होनेपर, जयश्रीके आलिंगनके लोभी, राम और लक्ष्मण, दोनों गुस्सेसे भर उठे। कलकल ध्वनिके बीच राम और रानाकी सेनाएँ नैयार ने उनी । उनकी पताका, उड़ रही थीं।
[१] कुमार अंगदक जानेपर, रात्रणने अपनी चन्द्रहास सलवार निकाल ली। कवच पहनकर वह सहर्ष निकल पड़ा । आगे उसके अंग दिखाई दे रहे थे । उसका मुख ऋद्ध दिखाई दे रहा था। उसकी वजोपर, सुन्दर लाल-लाल आँखवाले 'निशाचर अंकित थे । असाध्य रथपर बैठा हुआ रावण ऐसा दिखाई देता था, मानो क्षयकाल और मृत्यु के बीच यमराज हो । उसका शारीर स्थूल और दृढ़ भुजाओंवाला था। विशाल यक्षवाला रायण अत्यन्त भीपण लग रहा था। भौहोंसे उसकी
आँखें भयानक लग रही धों। महाप्रलय कालकी भाँति वह कहकहा लगा रहा था । प्रलयाग्निकी भौति वह धकधका रहा था । देखने में उसका मुख शनिकी भाँति तमतमा रहा था । नागराजकी भाँति, वह अपनी फूत्कार छोड़ रहा था । अंकुश विहीन हााकी भाँति वह गरज रहा था। बादल आनेपर, सिंहकी तरह दहाड़ रहा था। कृष्णपक्ष की समाप्ति होनेपर, समुद्र की भाँति वह एकदम मर्यादाहीन हो रहा था । इन्द्रकी तरह, उसका शरीर कई युद्धोंकी चाहसे रोमांचित हो रहा था। आकाश में, बरवालाको भाँति, वह धू-धू कर रहा था, विजलियोंके महापुंजको भाँति तड़तड़ा रहा था। देवताओंके अंगनाजनको सतानेयाला राषण जब इस प्रकार युद्धके लिए स्वयं सजने लगा तो उसके अनुचर सैनिक फूले नहीं समाये । नगर और गलियों में रेल-पेल मचाते हुए चल पड़े ।। १-१०।।