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पंचसष्टिमो संधि
१४. "खल, नीच, और दुष्ट कपिराज सुग्रीव, तुम सचमुच लंकानरेशके लिए पाप हो ! तुमने जो रावणको छोड़कर रामका पक्ष लिया है, तो लो करो प्रहार, मैं तुम्हारे नाम तककी रेखा नहीं रहने दूंगा।" यह सुनकर, विद्याधरोंके स्वामी सुप्रीवने इन्द्रजीतको फटकारा “अरे कुमल्ल, क्या तुम हो और क्या रावण ! इस तरह मोलकर आखिर क्या पाओगे।" इस प्रकार एक दूसरेको डाँट कर वे आपस में भिड़ गये। उन्होंने अपने प्रसिद्ध धनुष हाथ में ले लियो ने लाहो अले सास से, इस उछल रहे थे मानो प्रलयके मेघ अपने नवजलकी वर्षा कर रहे हो। उन दोनों योद्धाओंने वीरोंसे आकाशको ढक दिया, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार, नये मेघ वर्षाकालमें ढक देते हैं ॥१-२॥
[ दुर्दम निशाचरोंका दमन करने में समर्थ इन्द्रजीतने अपना मेघवाण छोड़ा। सहसा इन्द्रधनुष प्रगट हो गया, मेष गरजने लगे, बिजली कड़कने लगो, अनवरत वर्षा हो रही थी, नये मोरोंकी ध्वनि सुनाई दे रही थी।' यह देखकर तारापति सुप्रीष भड़क पठा, उसने अपना बायव बाण छोड़ा, मानो पवनने स्वयं धूमध्वज छोड़ा हो, या मानो प्रलयकाल ही निशाचर सेनाके निकट पहुँच गया हो। हवाफा गवण्डर, धूल, पत्थर, उससे बरस रहा था। ध्वज, छत्रदण्ड और दण्ड टूटफूट रहे थे । गजघटा लोटपोट होने लगी । अतुलनीय गवाले बड़े-बड़े रथ, लोटपोट होने लगे। इसी बीचमें दुर्षात आया,
और उसने सेनाका नाश करनेवाला नागपाश फेंका। उस बड़े तीरसे सुप्रोव इस प्रकार घिर गया, मानो प्रबल शानावरण कर्मसे जीव घिर गया हो ।।१-२॥