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परसपरिमो संधि
उस जग-कमलकी आठ पत्तियाँ थीं। युद्धभूमि उसकी कलियाँ थीं। अथया मानो धूलके व्याजसे धरती आकाशकी ओर जा रही थी। अथवा युद्धरूपी पटका सुवासित चूर्ण उड़ रहा था। अश्वोंसे विहीन रथ नष्ट हो रहे थे। मानो षह धूल दोनों सेनाओंको युद्धके लिए मना कर रही थी, अथवा वक्षःस्थलोंको स्वयंका आलिंगन दे रही थी। बड़े-बड़े श्रेष्ठनरोंका यह मुख मैला कर रही थी, रथघरोंके ऊपर वह चढ़ रही थी, मानो गजोंके मदजलसे नहा रही थी, मानो कर्णताल को लयपर नाच रही थी। छत्र ध्वजोंपर चढ़कर विश्राम कर रही थी या आकाशके आंगनमें पड़कर तप कर रही थी। फैलती और उठती हुई पीली और चितकबरी धूल ऐसी दिखाई दे रही थी, मानो धरती के शवको हर्षपूर्वक लीलते हुए युद्धरूपी राक्षस का केशभार हो ॥१-१०॥
[१३] ऐसा एक भी रथ, हाथी, अश्व, ध्वज और आतपत्र नहीं था जो खण्डित न हुआ हो। उस युद्ध में केवल योद्धाओं का चित्त ऐसा था जो मैला नहीं हो सका था। संग्रामभूमि अत्यन्त दुर्गम हो उठी। फिर भी कितने ही योद्धा प्रशंसनीय ढंग से प्रहार कर रहे थे। किसीने हाथियोंके कुम्भस्थल नष्ट कर दिये, मानो संपामलक्ष्मीके स्तन हों, किसीने मनुष्योंके विशाल सिर उतार लिये, मानो विजयलक्ष्मी रूपी सुन्दरीके घमर हो। किसीने जबर्दस्ती शत्रुओंके छत्र छीन लिये मानो विजयलक्ष्मीका लीलाकमल हो। किसीने आँखसे दिखाई न देने पर, बाल नोंचते हुए प्रहार किया। किसीने तलवार रूपी लाठी निकाल ली, मानो रणरूपी राक्षसकी जीभ ही निकाल ली। किसीने हाथ के कुम्भस्थलको फाड़ डाला, मानो युद्धभषन