Book Title: Paumchariu Part 4
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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३३.६
एि
[14]
ऍ पट्टएँ जाउ रणु घोरु ।
राइव-रावण-वल हुँ
र- विवज्जिय
रह रहा हूँ पर
मिडिय मत माय
को विबभदु भिडेंविण इच्छ की विसराकरिय करु भाषड् । कासु बाहु-दण्डु वाणग्गे । कासु इ वाण णिरन्तर लग्गा । जिंग्गुण जड् विधम्म- परिचत्ता | जच्च कहि नि रुण्डु रण भूमिहें। कासु शुभ-भत्रका
अम्धार
करण-ध-सर-पहर- णिड हुँ । सुरज णाएँ अणुरस-मिण हुँ । रहँ तुरङ्ग तरकहुँ ।
मत्त माय हुँ ॥१॥ समागमणु सहुँ सुरेहिं परिच्छ ४२ रण बहु-अवरुण्डन्त जावई ॥ ३ ॥ जिड भुजङ्गु गंगा विह ॥४॥ पचिव ण देवि ण फेण चि भग्गा ||५ वे नि वन्धु जे अवसर पत्ता ||६|| नीरिशु हुड णिय- सिरेण सु- सामिहें।
माँ सीसु अन्धषिय | गयणहाँ गम्पि पडीवर वष्टिय ॥८ राहु-विम्बु ससि विश्वेंची
बालीणउ ।
॥९॥
घता
केण चिसि दिष्णु लामि-रिपों उरु वाणहुँ हिंड सब्बु जिणों । सडनहुँ सरीरु जीविड कमी अइ-चाएं णासु होइ कहाँ ॥ १०॥
[६]
को विगड वरविकासिणिएँ
कुम्मयल-पओहरे हिं कर-किन्तुच्चाइय
मिष्णु दन्ति-दन्तगँ लग्गड् । को वि जाहि-उप्परे लग्ग ||
।
वें दिष्णु सिर-तउ || १ |
को बिसुद्ध हासु विउ चिन्तन्
"कि

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