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एजुगलसरीमो संधि
२०९ स्वामीकी आज्ञाको, जिस प्रकार गणधर जिनपरकी वाणीको, जिस प्रकार तार्किक शिव शाश्वतरूपी मोतीको, जिस प्रकार वैयाकरण उत्तमशब्दोंकी उत्पत्तिको तोड़ लेते हैं। फिर उन्हें तुंगभद्रा नामक महानदी मिली, जो हाधियों, मगर-मच्छ और ओहरोंसे अत्यन्त भयानक थी। वह ऐसो लगती थी, मानो संध्या असह्य किरण सूर्य की सीमान्ती हवाओंको सहन नहीं कर सकी और प्यासके कारण उसने सागरकी ओर अपनी जीभ फैला दी हो ।।१-९॥
[६] धरतीपर बहती हुई काले रंगकी वह नदी ऐसी लगी भानो किसी कंजूसकी उक्ति हो । मानो इन्द्रनीलपर्वतने आदरपूर्धक उसे समुत्रका रास्ता दिखाया हो। अपने जलसमुहके विस्तारके साथ वह नदी घूम रही थी, वह नदी जो सेउण देशके लिए अमृतकी धारा थी। फिर उन्हें गोदावरी नदी दिखाई दी, जो ऐसी लगती थी मानो सन्ध्याने अपनी बाह फैला दी हो। सेनाओंने उन नदियोंको जब पार कर लिया तो ऐसा लगा मानो किसी आदमीने कुटिल स्वभावकी स्त्रीको अपने पशमें कर लिया हो। उसके बाद वे महानदीके पास पहुँच, सज्जनके समान जिसकी थाह नहीं ली जा सकती। उससे थोड़ी दूरपर विन्ध्याचल पहाड़ था, मानो धरतीका सीमान्त हो । सहसा क्रुद्ध होकर हनुमान्ने रेवा नदीको निन्दा की और कहा, "विन्ध्याचलकी तुलनामें समुद्र सुन्दर है, वह समुद्र जो विषसहित (जलसहित) है, जो कृपण है और अत्यन्त खारा है।" यह सुनकर आकाशवासी विद्याधर भामण्डल ने कहा, “विन्ध्याचलको छोड़कर, रेवा नदी जो समुद्रके पास जा रही है, इसके लिए उसपर क्रोध करना बेकार है, क्योंकि यह तो स्त्रियोंका स्वभाव होवा है कि वे असुन्दरको छोड़कर सुन्दर के पास जाती हैं।। १.११॥