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एक सरिमो संधि सर्चवस्सल हैं। आप वर (वधूयुक्त, प्रशस्त) होकर भी सदैव अकेले रहते हैं, आप प्रमु (स्वामी, ईश) होकर भी अपरिग्रही हैं, हर (शिव) होकर दुष्योका निग्रह करते हैं, सुधी (सुमित्र, पण्डित) होकर भी दूरस्थ है, विमहशून्य होकर भी आप सूर-वीर हैं, (वैरशून्य होकर भी अनन्त चीर हैं ), निरक्षर (अझरशून्य, क्षयशून्य ) होकर भी बुद्धिमान है, आप अमत्सर होकर ऋद्ध (कुपित, पृथ्वीकी पताका ) हैं, महेश्वर होकर भी निर्धन हैं, गज होकर भी बन्धनहीन है, अरूप होकर भी सुन्दर हैं, आप वृद्धिस रहित होकर भी दी है, आत्मरूप होकर भो, विस्तृत हैं, स्थिर होकर भी नित्यपरिवर्तनशील हैं, इस प्रकार भुवनानन्ददायक जिनेन्द्रकी स्तुति कर, धरती तलपर रावणने नमस्कार किया, अपनी आँखोंको नाकके अबिन्दु पर जमा कर अपलक नयन होकर उसने मनमें अविचल ध्यान प्रारम्भ कर दिया ॥१-३३॥
[१२] यह सुनकर कि रावण बहुरूपिणी विद्याके प्रति आसक्त होने के कारण नियमकी साधना कर रहा है, राम,इनू मान सुग्रीव और जाम्बवानकी सेनामें हल्ला होने लगा। सौमित्रि, अंग, अंगद, गवाक्ष, गवय, गज, तार, रम्भ, भामण्डल, कुमुद, कुन्द, नल और नीलमें खलबली मच गयी। और भी अनेक अनुचरों में से एक ने कहा, "बताओ क्या करें" वह तो युद्ध छोड़कर शान्ति जिनमन्दिर में प्रवेश कर बैठ गया है। वहाँ वह ध्यान कर रहा है। यदि कहीं उसे विद्या सिद्ध हो गयी तो न मैं रहूँगा और न आप और न ये बानर । अच्छा हो, यदि शत्रु अभी मार दिया जाय। चार, जार, सर्प, शत्रु और आग, इन चीजोंकी जो मनुष्य उपेक्षा करता है वह विनाशको प्राप्त होता है, वह उसी प्रकार दुःख पाता है जिस प्रकार जड़