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पडतरिमो मधि
१९५ में चित्रदण्ड और नयें हाथमें हल था । दस हाथमें झस और ग्यारहवें हाथमें सम्पल था। चारहवें हाथमें भीषण मिविपाल था और तेरहवें हाथमें अचूक चक्र था। चौदहवें हाथमें महान भाला था और पन्द्रहवें हाथमें भयंकर शक्ति थी। सोलहवें हाथमें अत्यन्त भीषण त्रिशूल था, सत्रहवें हाथमें दुर्दर्शनीय कनक था, अठारहवें हाथमें भयंकर मुगदर और उन्नीसवें हाथमें केशरके समान लाल धन था। बीसवें हाथमें वह भयंकर भुसुंडी लिये हुए था जो ऐसी लग रही थी मानो कालने अपना काल दण्ड ही घुमा दिया हो। बोसों हार्थोमें बीस आयुध लेकर और भृकुटियोसे भयंकर अपने दसों मुखोंसे रावण इतना भयानक हो उठा माना समस्त ग्रहों के साथ कृतान्त ही कुपित हो उठा हो ॥ १-१०॥
[4] उसके वस कण्ठोंमें दस ही कंठे थे, दस सिरोंमें दस मुकुट चमक रहे थे, दसों कर्णयुगलोंमें कुण्डलोंके दस जोड़े थे। उनमें जटित रत्नसमूह रावणके क्रोधकी भाँति चमक रहा था। अथवा ऐसा लगता था, मानो ताराओं सहित कृष्ण पक्ष हो । उसका प्रथम मुख, भयकालके सूर्य के समान या, सिंदूरके समान अरुण, और सूर्य से भी अधिक असल था । दूसरा मुख धवल था, आँखें भी धवल थीं और वह पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान स्वच्छ था । तीसरा मुख मंगलग्रहके समान लाल अंगारे उगलता हुआ दुनियाके लिए अत्यन्त भयंकर था । चौथा मुख बुधके मुखके समान भास्वर था, पाँचवें मुखसे वह ऐसा मालूम होता था मानो स्वयं वृहस्पति हो । छठा मुख शुक्रमुखकी तरह सफ़ेद था, दानवोंका पक्ष प्रहण करनेवाला और देवताओंके लिए सन्तापदायक । सातवाँ मुख शनिदेवताके समान अत्यन्त काला था । अत्यन्त दुदर्शनीय दाँत और दाढ़े निकली हुई थी।