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दुससरिमो संधि [६] अन्तःपुर सोध रहा था कि हम क्या करें ? क्योंकि सैकड़ों घावोंसे चिहित प्रिय अभी ध्यानमें लीन है। वह जैसा कह रहा था कि चलो हम भी अभ्यास करें। इस प्रकार रातमें अपने मनमें विचार करता हुआ यह बैठ गया। जिनराजको बन्दनामें ही उसका सिर नमन था; फूलोंके निएन्धनमें ही प्रिय बन्धन 7 जय श्री को शिमा , दर्पण देखनेमें ही नेत्रोंका शिकार था; फूल सूंघने में ही नाक फड़कती थी, बाँसुरी बजानेमें ही चुम्बन था, पान खाने में ही अधरों ललाई थी. सुहावने अभिषेक कलशके कण्ठ ग्रहणमें प्रियका कण्ठ प्रहण था; स्वम्भेके आलिंगनमें ही आलिंगन था; बूंघट कादनेमें ही प्रियका दुराव था; गेंदके आघातमें ही करका आचात था: फूलोंके लगानेमें ही सीत्कारकी ध्वनि थी; अशोकपर प्रहार करनेपर ही घरणाघात होता था। रावणका जो अन्तःपुर कुंकुम चन्दन आदिके भी लेपभारको सहन नहीं कर सकता था, तो फिर कुण्डल, कटिसूत्र, कटक और मुकुट और हारोंकी तो बात ही क्या है ॥१-१३॥
[७] कोई देवी, आज्ञापालन करनेवाली स्त्रियोंको सुन्दर आदेश दे रही थी, "हे ललिताझे तुम नारंगी ला दो, जो जिनेन्द्र भगवान्की अर्चा करने योग्य हो । अरे दाडिमी, तू सुन, दाडिम लाकर दे, हे विद्याकरी, तुम विद्यापुर ले लो, हे बहुफलिते, तुम सुगन्धित बहुत-से फल ले लो, हे रक्कोपले, तुम रक्तकमल ले लो, हे इन्दीवरे, तुम इन्दीवर ले लो, हे शतपत्रे,