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सिसप्तरिमो संधि सीता देवी मूञ्छित हो गयीं ॥ १-९॥
[१२] रामकी पत्नी सीता देवीको मूञ्चित देखकर, रावण उसके पाससे वैसे ही हट गया जिसप्रकार हथिनीके पाससे हाथी हट जाता है । वह अपनी ही निन्दा करने लगा, "धिक्कार है मुझे । परस्त्री सचमुच असार है, वह खोटी गतिमें ले जाती है और सुगतिको रोक देती है। मुझ पापीने यह सब क्या किया, जो मैंने एक प्रेमी जोड़े में बिछोह डाला । मुझ जैसा बुरा करनेवाला अभागा दुर्मुख और पापो कौन होगा, सचमुच में दुर्जन. दुष्ट, दुरामा दुलनाम, कपरप, सन्दभाग्य और अपण्डित हूँ । अनयशील, विनयहीन, चरित्रहीन, कुशील और लज्जाहीन हूँ। दूसरेको स्त्रीको सतानेवाले मुझसे अच्छे तो जलचर-थलचर और पनपशु हैं । पशु होना अच्छा, पक्षी और कीड़ा होना अच्छा, पर मुझ जैसा जगपीडक होना अच्छा नहीं । तिनका होना अच्छा, पत्थर होना अच्छा, लोहपिण्ड और सूखा पेड़ होना अच्छा, परन्तु निर्गुण ब्रतहीन, धरतीका भारस्वरूप आदमीका उत्पन्न होना ठीक नहीं ॥१-२॥
[१०] रायणने फिर कहा, "अरे-अरे स्त्रीका अपमान करनेवाले, तुम्हारा सर्वांग कदली वृक्षकी तरह सारहीन है, चलनी. की भाँति, तुम कचरा ग्रहण करनेवाले हो, नदीकी तरह नीचेनीचे और टेदे-मेढ़े यहनेवाले हो, पावसके मार्गोंकी भाँति संचरण करनेके योग्य नहीं हो, कुमुदिनीकी भाँति चन्द्रमाका उपकार कर सकते हो, कमलिनीकी भाँति तुम कीचड़से मुक्त नहीं हो सकते, स्त्री मनका विदारण करती है. इसीलिए दारा कहते हैं, वह वनिता इसलिए कहलाती है कि शरीर आहत कर देती है, और गणिका इसलिए है क्योंकि सब धन गिना लेती है,