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घजसत्तरिमी संधि
चौहत्तरवों सन्धि
सूर्योदय होते ही सब जाग उठे। सेनाएँ रण-रंग और अमर्षसे भरी हुई थीं। हर्ष और वेगसे आगे बढ़ती हुई और कोलाहल मचाती हुई राम-रावणकी सेनाएँ एक-दूसरेसे जा मिड़ी।
[१] रावण अपने अन्तःपुरमें गया ही था और रातमें भोग भोग हो रहा था कि चारों पहर समाप्त हो गये । उदयाचलपर सूर्य उग आया। सिंहको भौति, वह अपना नहभास्वर ( नख भास्वर, नम भास्वर ) किरणजाल फैला रहा था, और इसप्रकार एक-एक प्रहर में निशारूपी गजघटाको इटा रहा था । प्रभातके उस अवसरपर, रावण अपनी आँखें धोकर दरबारमें आकर बैठा | वह अमर्षसे परिपूर्ण निशाचरोंसे ऐसा घिरा हुआ था, मानो यमकरणसे शोभित यम हो, महारुण ( लाल नाखून ) से युक्त सिंह हो, मानो तारागोसे सहित चन्द्रमा हो, मानो अपना किरणजाल फैलाये हुए सूर्य हो, मानो जलविस्तार• से युक्त समुद्र हो, मानो देवताओंसे घिरा हुआ इन्द्र हो ! वह मारे क्रोधके अपनी दादी नोच रहा था। आवेशमें आकर अपने हाथ तान रहा था। उसके नेत्र डरायने थे | वह सिंहासनपर बैठा हुआ था। उसे अपने पुत्र और भाईका अपमान याद हो आया। उसे अब न तो राज्य की चिन्ता थी और न जीवनकी । देवताओं और असुरोंको आतंकित करनेवाले, यम, धनद, इन्द्र और घरुणको पकड़नेवाले, सज्जनों और दुर्जनों दोनोंको भय उत्पन्न करनेवाले रावणके होठ फड़क रहे थे। वह तुरन्त अपनी आयुधशालामें गया ।। १-९ ।।