Book Title: Paumchariu Part 4
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 317
________________ तिसत्तरिमो संधि २०५ तक जो तुम बचो रही, वह केवल मेरी इस भारी व्रत-वीरताके कारण कि मैंने संकल्प किया है कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी उसे मैं जबर्दस्ती नहीं लगा : फिर चाहे वह तिकोनता शा रम्भा देवी ही क्यों न हो? यही कारण है कि में बार-बार तुम्हारी अभ्यर्थना कर रहा हूँ। मुझपर दया करो । मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें अन्तःपुर में सम्मानसे प्रतिष्ठित करूंगा, तुम्ही एकमात्र महादेवी होगी । स्वर्ण चामरोको धारण करनेवाली सेविकाएँ तुम्हें कभी नहीं छोड़ेगी। देवता तुम्हारी सेवामें रहेंगे। घने छिड़कावके बीचमें-से तुम नगरमें प्रवेश करोगी। अब तुम राम और लक्ष्मणको आशा तो दुर्बुद्धिकी तरह दूरसे हो छोड़ दो ॥ १-११॥ [११] इस प्रकार जान-बूझकर सषणने दुष्टता शुरू की । उसने बहुरूपिणी विद्याके सहारे तरह-तरह के रूपोंका प्रदर्शन प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर दशरथपुत्र रामकी पत्नी सोचने लगी - "निश्चय ही अब राम-लक्षमण जोत लिये जायेंगे। भला जिसके पास इतने सारे साधन है, जिसे बहुरूपिणीसे बड़े-बड़े रूप सिद्ध हो चुके हैं, और दूसरे बड़े-बड़े देयता जिसकी सेवा करते हैं, चारणोंका समूह जिसे नासे अपना सिर झुकाते हैं, क्या वह प्रियको मारकर मुझे नहीं ले लेगा" | इस आशंकासे वह देवी फिर बोली, "हे दशमुख, भुवन विख्यात रामके मरनेके बाद मैं एक मण भी जीवित नहीं रह सकती। जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ काम होगा रतिका वहाँ रहना ही ठीक है, जहाँ प्रेम होता है प्रणयाञ्जलि वहीं हो सकती है, जहाँ सूर्य होगा किरणावली वहीं होगी। जहाँ चाँद होगा चाँदनी वहीं होगी, जहाँ परमधर्म होगा जीवदया भी वहीं रहेगी। जहाँ राम, सीता भी वहीं होगी।" यह कहकर

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