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तरिम संधि
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बैठे हो ?" कपिध्वजियनि उसकी इस प्रकार खूब जिन्दा की, और फिर ईर्ष्यासे भरकर कहना शुरू कर दिया - "बाँधू पकड़ ले लूँ, बिखरा हूँ, विदीर्ण कर दूँ, मांस ले जाऊं ।" योद्धाओं की इस आपसी भिड़न्तसे रावणका अन्तःपुर ऐसा भयभीत हो उठा जैसे मतवाले हाथियोंके प्रवेश से कमलिनियों का वन अस्तव्यस्त हो उठता है ।। १-११।।
[९] कोई उस अंगना, अपने घरसे ऐसे निकल आयी, मानो कोई श्रेष्ठ लता, उद्यानसे अलग कर दी गयी हो। उसके श्यामल शरीर पर बिखरा हुआ हार ऐसा लगता था, मानो पावसकी शोभा में बगुलोंकी कतार बिखरी हुई हो। कोई अपने नूपुर चमकाती हुई ऐसी निकली, मानो सरोबरकी शोभा कमलोंपर फिसल पड़ी हो, कोई बाला अपनी करधनीके साथ ऐसी निकली, मानो नागको वशमें कर लेनेवाली कोई सुनिधि हो, कोई अपनी त्रिवलीका प्रदर्शन करती हुई ऐसी निकली, जैसे कामातुरता जन्य अपनी पोड़ा दिखा रही हो, कोई निकल कर मर्दनके बरसे आतंकित होकर जा रही थी, अपनी काली रोमराजीके खम्भेका उद्धार करती हुई। कोई अपने स्तनयुगलका भारवहन करती हुई ऐसे जा रही थी, मानो सौन्दर्य के प्रवाह में तिर रही हो। कोई अपने दोनों करकमल पीटती हुई जा रही थी, उससे भौरोंकी कतार उछल पड़ रही थी। कोई निकलकर किसीकी भी शरण में जाने के लिए प्रस्तुत थी, फिर भी मोतीको मालाने उसे गले में पकड़ रखा था । कोई निकलकर दे रावण' चिल्ला रही थी, और उसकी बाँहोंके लम्बे अन्तराल में प्रवेश पाना चाह रही थी। गजराज, चन्द्रमा, मयूर, हरिण और हंस जिनके स्वजन और सहायक होते हैं, उनके व्याकुल होनेपर, शूर (विवेकी, राम जैसे पुरुष )