Book Title: Paumchariu Part 4
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 303
________________ तरिम संधि पड़ा। बड़ी उसके चलनेपर अन्तःपुर भी मालाएँ, हार, केयूर और करधनीसे वह शोभित था । प्रचुर चन्दन, कर्पूर, कस्तूरी, केसर और कालागुरुके मिश्रण की कीचड़से मार्ग लथपथ हो रहा था। सफेद पताकाओं, तोरण, छत्रचिह्न, पताकावलियोंसे सने हुए मण्डपके भीतर भरे गुनगुना रहे थे, उसके सघन अन्धकारमें वह अन्तःपुर खिन्न हो रहा था। मुखरित और चंचल नूपुरोंकी झंकारसे आकृष्ट होकर हंस, उसके मध्यभागसे आकर लग रहे थे, और उससे उनकी कीड़ापूर्वक गतिमें बाधा पड़ रही थी । स्फटिक मणियोंसे जड़ी हुई धरतीपर, जो उसकी प्रतिच्छाया पड़ रही थी, विदग्धजन उसके बहाने उसका मुख चूम रहा था। कहीं दुष्टजन न देख लें, इस आशंकासे उसने चरणकमलोंसे छाया कर रखी थी । गिरी हुई मणिमय मेखलाएँ और मालाएं एक-दूसरेसे टकरा रही थीं और इस कारण वह अन्तःपुर लज्जा और अभिमान छोड़ चुका था । काले मणियोंकी धरती की कान्तिसे वह रंजित था। जहाँ-तहाँ वह अपनी दृष्टि दौड़ा रहा था । कहीं-कहीं पर नवपाटल पुष्पकी गन्धसे भरे मँडरा रहे थे। ऐसा लगता था, मानो वे मुख हाथ और चरणोंके लालकमलोंके क्रीडामोहमें पड़ गये हों। वहाँ कितनी ही रमणियाँ चंचल चामरोंके वेगशील विशेपसे सहसा मूर्छित हो उठीं। फिर सुगन्धित शुभ शीतल मन्द पवनकी ठण्डक से उन्हें होश आया । इन्द्रका मर्दन करनेवाले रावणने जय-जय ध्वनिके साथ अपने घर में इस प्रकार प्रवेश किया, मानो नाभिनन्दन आदिजिन अपने बाहुबलसे धरतीको बशमें कर गृहप्रवेश कर रहे हों ॥ १-११ ॥ २९५

Loading...

Page Navigation
1 ... 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349