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तिसत्तरिम संधि
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[४] कोई स्वर्ण कलशसे वैसे ही अभिषेक कर रहा था, जैसे लक्ष्मी विमल जलसे इन्द्रका अभिषेक करती है। कोई जलसे भरे रजतकलशसे उसका अभिषेक कर रहा था, मानो पूर्णिमा चनी प्रवाहसे चन्द्रमाका अभिषेक कर रही हो। कोई मरकत कलशसे उसके वक्षःस्थलका अभिषेक कर रहा था, मानो कमलिनी कमल कुण्डलोंसे महीतलको सींच रही हो। कोई आरक्त केशर कलासे अभिषेक कर रहा था, मानो सन्ध्या feवाकरके बिस्से दिनका अभिषेक कर रही हो। जयश्रीके अभिमानी रावणने इस प्रकार विविध लीलाओं और जय-जय शब्द के साथ स्नान किया । चक्रवर्ती रावणका शरीर ऐसा पवित्र हो गया मानो तीर्थंकर भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो। फिर उसे शरीर पोंछने के लिए वस्त्र दिये गये जो दुष्ट दूतीके वचनों के समान सुन्दर थे। उसने धोती उसी प्रकार छोड़ दी जिस प्रकार जिन भगवान खोटी गति छोड़ देते हैं। जलसे गीले बाल उसने सुखाये । उसने स्वयं सफेद कपड़ा ले लिया और उससे अपना सिर उसी प्रकार लपेट लिया, मानो उसने शत्रुका नगर घेर लिया हो। सफेद कपड़े से ढके हुए रावणका सबसे बड़ा सिर ऐसा लगता था, मानो गंगाकी धारा से हिमालयकी सबसे बड़ी चोटी शोभित हो ॥ १-१० ।।
[५] जिनमन्दिर में जाकर उसने भगवानकी स्तुति की। उसने बार-बार अपनी निन्दा की। उसके बाद उसने भोजनशाला में प्रवेश किया। वहाँ वह स्वर्णपीठपर बैठ गया। उसके बाद जेवनार उसी प्रकार घुमायी गयी, जिसप्रकार धूर्तलोग किसी असतीको घुमाते हैं, जैसे व्याकरणके सूत्र अपण्डितकी बुद्धिको घुमाते हैं, जैसे अपना सर्वस्व नाश करनेवाले सगरपुत्रोंने गंगाको घुमाया था, जैसे हजारों शिष्य महाकविकी