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दुससरिमो संधि सहायक नहीं होते ॥१-११॥
[१०] किसी वनिताके वन एकदम ढीले ढाले थे, बाल बिखरे हुए, और आँखें गोली-गोली। दोनों हाथोंसे मुखको ढककर यह बेचारी प्रियके सम्मुख रो रही थी,-"अरे दुर्दम दानवोका दमन करनेवाले ओ रावण, तुम्हारा चरण देवताओंके मुकुटोंके शिखरमणि पर अंकित है । तुमने यमरूपी महिपके सींगोंको उखाड़ फेंका है, इन्द्र के ऐरावत हाथीके दाँतोंको तोड़-फोड़ दिया है। हे परमेश्चर, आज आपकी शक्ति कम क्यों हो रही है, क्या रावण किसी दूसरे का नाम है ? क्या चन्द्रहास तलवारकी साधना किसी और ने की थी? क्या कुबेरका विनाश किसी दूसरेने किया था। क्या वह कोई दूसरा था जिसने सूंड़ उठाये हुए, प्रचण्ड निगमग हाधीको अपने पक्षाने किया था: सा कृतान्तराजको किसी दूसरेने अपने अधीन बनाया था? क्या सुग्रीव किसी दूसरेके अधीन था ? क्या किसी दूसरेने कैलास पर्वतको गेंदकी भाँति उछाला था ? क्या सहस्र किरणको किसी दूसरेने जीता था। नलकूबर और इन्द्रकी उछल-कूद किसी औरने ठिकाने लगायी थी। क्या वे किसी दूसरेकी भुजाएँ थीं जो वरण-जैसे नराधिपको उठानेकी सामर्थ्य रखती थीं ? यदि तुम्ही दशवदन हो, तो फिर हमारी यह हालत क्यों हो रही है ?" ||१-११॥
[११] इससे भी रावण अपने ध्यानसे नहीं डिगा। मेरु पर्वतकी तरह वह एकदम अचल था। ठीक उसी प्रकार अचल था जिस प्रकार योगी सिद्धिके लिए, या राम अपनी पत्नीकी प्राप्तिके लिए अडिग थे। रावण भी इसी प्रकार विद्या