________________
I
दुरिम संधि
२७५
तरह प्रतीत होता है। क्या सूर्य, क्या तारे, क्या चन्द्रमा और भी जो अपने व्यापार ( गमन) हैं, वे दुङ स्वजनके उत्थान से अवश्य कान्तिहीन हो जाते हैं ॥ १-१॥
[२] मोतियोंसे जड़ा हुआ रावणका आँगन ऐसा लगा मानो ताराओंसे जड़ा शरदुका आँगन हो बहुत-से रत्नोंसे उज्ज्वल और मणियोंसे निर्मित धरती ऐसी लगती मानो रत्नाकरका विशिष्ट जल हो; वे सोचने लगे कि कहाँ पैर रखा जाय और किस प्रकार रावणको वध किया जाय; शायद वे चन्दनके छिड़काव के मार्ग से जाने पर कीचड़के भयसे पैर नहीं रख पाते; शायद स्फटिक मणियोंके रास्ते जाते परन्तु आकाशकी आशंकासे लौट आते; पन्नों और मूँगों की धरती देखकर, वे समझते कि यह किरणावलि है, इसलिए पैर नहीं रखते; चित्रोंमें सैकड़ों साँपों को चित्रित देखकर वे इसलिए उनपर पैर नहीं रखते कि कहीं का न खाये; फिर भी नील मणियोंसे बने हुए मार्गपर जाते हैं, परन्तु फिर सोचते हैं कि कहीं अन्धकूपमें न चले जाँय । फिर वे चन्द्रकान्त मणियों के पथपर जाते हैं, परन्तु लौट आते हैं कि कहीं तालाव में न डूब जाय, फिर वे सूर्यकान्त मणियोंके पथसे गये, पर शंका होती हैं कि कहीं आगमें न जल जाँय । दुःख से प्रवेश पानेवाले चन्द्रकिरण, हनुमान, अंग, अंगद और तारा ऐसे लगते मानो यम, शनि, राहु, केतु और अंगार हों ।। १-११||
[३] शत्रुका घर हँस-सा रहा था, वह मुखपटसे सुन्दर था, मूँगा उसके अधर थे, मोती ही दाँत थे, सुमेरु पर्वती तरह मस्तक से आसमान छूता हुआ-सा यह देखनेके लिए तुम्हारे हमारे बीच में कौन अधिक ऊँचा है, जो चन्द्रकान्त