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एकत्तरिमो संधि
२.१ [१६] उस अवसर, महायुद्धके रचयिता राघवने जैसे ही 'अंघी' की पूजा की वैसे ही सेनामें प्रबल यक्ष सेना टूट पड़ी
और अपनी तलवारें निकालकर उनके सामने स्थित हो गयी। तब देवताओंने कहा, अरे रावणके अनुचरो, जिस तरह सम्भव हो, युद्ध में आक्रमण करो, अपनी ताकत तौलकर युद्धमें लड़ो।' देखने के लिए देवताआकाश में स्थित हो गये।" यक्षोंने कहा, "राम
और रावणका युद्ध रहे. अभी हमारी तुम्हारी भिड़न्त हो ले।" यह सुनकर, शान्तिनाथ मन्दिरकी रक्षा करनेवाले रावण पक्षके अनुचरोंने उन्हें डाँटा और कहा, "अरे दुर्मन, दुष्टो, तुमने रावणके साथ धोखा किया है, अब वही रावण तुम सबको और रामकी सेना और सुप्रीवको मजा चखायेगा।" यह सुनकर आशंकासे भरे हुए और कलंकित मान यक्ष छल छोड़कर भाग खड़े हुए, फिर भी तलवार उठाये हुए वे पीछा करने लगे। इतने में शत्रु रामकी सेना आ गया बार-५।।
[१७] तब बहुत-से भूत और भविष्यको जाननेवाले प्रधान रक्षकोंने रामकी निन्दा करते हुए कहा-“हे मनुष्य श्रेष्ठ राम, यदि तुम्ही इस तरह अन्याय करते हो तो फिर किसका परिहास होगा ? साधनामें रत व्यक्ति पर आक्रमण करने में कौनसा गुण है." यह सुनकर नारायणने कहा-"तुम यह किस कारण कहते हो; अरे चरित्रहीन यक्षो, दुष्ट चोरो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करनेवालो, तुम्हें अनुग्रहीत करनेमें क्या लाभ ? मेरे रूटनेपर क्या शान्ति रह सकती है ?" यह निन्दा यक्षोंके मन में बैठ गयी। वे सोचने लगे, हमने सचमुच अनुचित काम किया, सचमुच रावण बुरा करनेवाला है, यह दूसरे