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साधन थे, मुलकी भाँति जो की भूमिका पहुँच चुका था। धनुर्धरकी भाँति जो गुण मेल्लितसर, ( डोरी से तीर छोड़ रहा है; जिसके स्वर में गुण हैं ) जो अर्धरात्रिकी भाँति, प्रहरों ( पहरेदार, अस्त्र ) से पूरित हैं। फिर राजा शीघ्र ही मुनिसुव्रत भगवान् के मंगलोंका गान करते हुए, मन्दिर में गया। उसने कहा स्वर्गावतार में, जन्माभिषेक में, दीक्षा के समय, ज्ञान प्राप्ति और निर्वाणकी सिद्धिमें तीर्थंकरोंके जो पाँच कल्याण होते हैं वे होते रहें। जबतक यह धरती, मन्दराचल, सागर, आकाश, दिशाएँ और महामदियोंका जल है तबतक जिन भगवान के परमपवित्र पंचकल्याणक होते रहें ।। १-९॥
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[९] मंगल शब्द से राजा सहसा इस प्रकार प्रबुद्ध हो उठा, मानो पूनोका चाँद हो, मानो उद्याचलर तरुण सूर्य हो, मानो सूर्यकी किरणोंसे विकसित मानस सरोवर हो, मानो किशोरसिंह बाललीला कर रहा हो, मानो सुरबालाओं के चित्त को चुरानेवाला इन्द्र हो । उठते-उठते उसने देखा तरह-तरह के मणिसमूहसे जड़ित विमान आकाशतल में खचाखच भर गये । वे ऐसे लगते थे, मानो आकाशतल में कमल खिले हों, वे विमान सज्जनोंके मुखकी भाँति हँसते-से दिखाई देते थे । वे निष्कारण खिले हुए थे, अच्छी स्त्रीकी भाँति, एक-दूसरे से मिले हुए थे । उन विमानों में वीर दिखाई दिये, उनके शरीर सभी तरह के अलंकारोंसे अलंकृत थे। उसने पूछा, “तुम कहाँसे आये, क्या यहाँपर कोई मायापुरुष आ पहुँचा है। हेमन्त, ग्रीष्म और पावस ऋतुओंने अपना एक-एक अंग सजा लिया। लगता था, जैसे विष्णु, शिव और ब्रह्माने इसी रूपमें अबतार लिया हो ॥१-२||