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सप्तरिम संधि
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कर सैनिकोंने उसका गला पकड़कर धक्के एवं एड़ीके आबा से उसे बाहर निकाल दिया। अपमानित होकर वह लंका नगरी पहुँचा। उसने रावणसे अपने निवेदनमें कहा, "हे देव, मैं किसी प्रकार मारा भर नहीं गया । लक्ष्मण राम अजेय हैं, उन्होंने साफ 'न' कह दिया है, वे संधि करनेके लिए प्रस्तुत नहीं । अब जो ठोक जानें उसे सोचें, निश्चय ही अब अपना क्षयकाल आ गया है ।। १-१० ।।
[११] जिसने शम्बुकुमारको मार डाला, जिसने खर और दूषणको जमीनपर सुला दिया, जिसने मगरमच्छों से भरा समुद्र पार कर लिया, जिन्होंने हस्त और प्रहस्तको मौत के घाट उतार दिया, इन्द्रजीत और कुम्भकर्णको गिरा दिया। जो विशल्या सुन्दरीको ले आये और अपना भाई जिला दिया, उसके साथ युद्ध शोभा नहीं देता सीता वापस कर दो, छोड़ो उसका संग्रह ।" यह सुनकर राजा रावण बोर चिन्तामें पड़ गया, उसे लगा जैसे उसकी समुद्रकी भाँति मंधनकी स्थिति आ गयी। उसने कहा, "मैं नहीं जानता कि काम किस प्रकार होगा, क्या उसे बाँधकर कन्धों पर लाऊँ, क्या मैं शत्रु सेनामें नोंद केला हूँ, क्या लक्ष्मणको सेनापर तीरोंको बौछार कर दूँ । भले ही मुझे सेना सहित आत्म-समर्पण करना पड़े, मैं सीताको बापस नहीं कर सकता । हाँ, अब भी एक उपाय है। मैं बहुरूपिणी विद्याकी सिद्धिके लिए जा रहा हूँ। सारे नगर में मुनादी पिटवा दो गयी कि कोई डरे नहीं, और आठ दिन की बात है, मैं ध्यान करने जा रहा हूँ। अब मैं शान्तिनाथ मन्दिरमें जाकर ध्यान करूंगा” ॥ १-१२ ॥
[१२] यह कहकर रायण शीघ्र ही चल दिया। इसी बीच