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एकहत्तरिमो संधि
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भाँति जलित ( जलमय, ज्वालामय ) थे। फिर उसने नाना प्रकारकी गन्धवाली धूपसे जिनकी पूजा की, जो जिनवरकी तरह दग्धकाम श्री । उसके अनन्तर सुशोभित फल-समूहसे उन्हें पूजा, वह फल-समूह काल्यकी भाँति सब रसोंसे अधिष्ठित था । फिर उसने पके हुए आम्रफलांसे पूजा की, जी तककी भॉति शाखासे मुक्त थे | जब वह इस प्रकार भगवान जिनेन्द्रको पूजा कर ही रहा था कि आकाश में देवताओंकी ध्वनि सुनाई दी। ध्वनि हुई कि भले ही तू इस समय शान्तिको घोषणा कर रहा है फिर भी कल, जय राम लक्ष्मणको ही होगी। जो अपनी इन्द्रियों वशमें नहीं करते और दूसगेकी सीता वापस नहीं करते, बनको श्री और कल्याणकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ।।१-शा
[११] उसके अनन्तर, रावण विचित्र स्तोत्र पढ़ने लगा"नाग नरों और देवताओंमें विचित्र हे देव, तुमने अपने शरीर से मोक्षकी सिद्धि की है, चन्द्रमाके सदृश शान्त-आचरण शान्तिनाथ, सोमकी भाँति हे कल्याणमय, हे परिपूर्ण पवित्र, आपके चरित्र सदासे पवित्र हैं, तुमने सिद्ध वधूका घूघट खोल लिया है, शील, संयम और गुणरतोंकी तुमने अन्तिम सीमा पा ली है, आप भामण्डल, श्वेत छत्र और चमर, दिव्य ध्वनि और दुन्दुभिसे मण्डित हैं। जिसके संसारोत्तम कुलमें सुभगता है, जिसका शरीर १०८ लक्षणोंसे अंकित है, जिनके छत्रकी कान्तिसे सूर्य और चन्द्र लजाते हैं, जिनके ऊपर अशोक सदैव अपनी कोमल छाया किये रहता है। मन और इन्द्रियाँ, जिनके अधीन हैं, मैं ऐसे कमलनयन शान्तिनाथको प्रणाम करता हूँ।