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एक हतरिम संधि
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आह्वान किया, दूसरे तरह-तरह के विधान किये, जय और मंगल के साथ उसने घड़े उठाये और प्रतिमा ऊपर जलधाराका विसर्जन किया। ऐक मदजसे सह भ्रमरोंसे अनुगुंजित और अनुचर से प्रेरित पुण्यपवित्र अपने हाथसे दशाननने देवताओं में श्रेष्ठ आदरणीय जिन भगवान्का अभिषेक किया ॥ १-२ ॥
[८] उसने पवित्र जलसे जिन भगवान्का अभिषेक किया। उस पवित्र जलसे जो हाथी की सूँड़से ताड़ित था, भ्रमर समूहसे अत्यन्त चंचल था, भ्रमरियों के उपगीतों से कोलाहलमय था, भ्रमर समूहसे मुखर और चंचल, अथवा, शत्रुके दुःखकी तरह अत्यन्त शीतल, सज्जन के मुखकी तरह उज्ज्वल, मलय वृक्षोंके समान, सुगन्धित, सतीके चित्तके समान निर्मल था | फिर उसने मधुकी तरह पीले और ताजे घी से अभिषेक किया । इसके बाद उसने दूध से उनका अभिषेक किया, वह चूर्ण जल, शंख, कुन्द और यशके समान स्वच्छ था, गंगाकी लहरोंकी तरह कुटिल, हिमालय के शिखरकी भाँति सघन, चन्द्रबिम्बकी तरह शुभ्र, टूटे हुए मोतियोंकी तरह स्फुट, शरद क्षेत्रकी तरह बिखरा हुआ था, और शिशिरके प्रवाहकी भाँति मंथर था । फिर उसने प्रतिमाका उबटन, धोवन, चूर्ण और गन्ध जलसे अभिषेक किया, जो चूर्ण जल, अविनीत पुरुषकी भाँति सघन, और नये वृक्ष की भाँति साहाबद्ध (शाखाएँ और मलाईसे सहित ) था । कपूर और अगरसे सुवासित, केशरसे मिश्रित वह गन्धोदक रावणने अपने अन्तःपुरको दिया मानो उसने समूचे अन्तःपुरको अपना हृदय ही विभ्रक्त करके दे दिया हो
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