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एकहतरिमो संधि मालाएँ बैंधी हुई थीं, विशाल पताकाएँ उड़ रही थीं। शुभ्र आतपत्र शोभित थे। सहसा जिन भगवान्के अभिषेक तूर्य बज उठे । मनन्द, नन्दी, मृदंग, हुडक, ढक, काहल, सरंज, भेरी, सल्लरी, दडिक हाथ की कर्तार, सदद्दुर, खुक्कड, ताल, शंख और संघड, डउपड, डक, और टट्टरी, झुणुक, भम्म, किङ्करी, वयोस, वंश, कंस तथा तीन प्रकारके स्वर वहाँ बजाये गये। प्रवीण, वीण और पाविया आदि पटहोंकी ध्वनि सुहावनी लग रही थी। सोनेके दण्डोंका विस्तार था, शुभ्र चमर बहुत-से थे, देवताओंको जो बातें निषिद्ध थीं वे भी उन्होंने वहाँ की। यमका काम सबकी रक्षा करना था, पवन बुहारता था और सब धूल साफ कर देता था, महामेन सोधनका काम करते थे, पमस्पतियाँ पूजा करती थीं, उत्तम अँगनाएँ नृत्य कर रही थीं, सरस्वती गीत गा रही थी और प्रयोक्ताओंने नृत्य किया। परिक्रमाके बाद स्वामीको नमस्कार कर, वह एक मणके लिए अपने मनमें स्थित हो गया। उसने अपने हाथों बाद्य बजाकर मंगल-नगान किया, और जिन भगवान्का अभिषेक किया ।। १-१८॥
[0] शत्रुओंको सतानेवाले रावणने जिनेन्द्रका अभिषेक प्रारम्भ किया। सबसे पहले उसने भूमिको घोया, फिर मंगल अग्नि प्रज्वलित की। फिर भुवनेन्द्रोंको सम्बोधित किया। तदनन्तर अमृतसे धरतीकी शुद्धि की, उसके बाद उत्तम मेरुपीठका प्रक्षालन किया । फिर वलय सहित अंगुलियोंसे अपना मुकुट बाँधा, सुमनमालाके साथ प्रतिमाकी स्थापना की। विश्व प्रशंसनीय कलशोंको उसने रोपा। फिर फूलोंकी अञ्जलि छोड़ी, अर्घ्य चढ़ाया, देवताओंका