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पुणसत्तरी मो संधि
२.५ [१०] भरतके ये शब्द सुनकर जनकपुत्र भामण्डलने निवेदन किया, "मैं भामण्डल हुँ। यह हनुमान है. वह रहा अंगद, जिसका शरीर हर्षातिरकम उछल रहा है, हम तीनों जिसलिए आपके पास आये हैं उसे आप सुन लीजिए, उसे फैलाकर कहने में क्या लाभ ? सीताके कारण एक-दूसरेपर क्रुद्ध राम और रावण में भयंकर संघर्ष चल रहा है। वहाँ लक्ष्मण शक्ति से आहत होकर पड़े हैं, और अब उनकी जिन्दगीका बचना कठिन हो गया है।" यह सुनकर वह पीड़ित हो गये, मानो वन से चोट खाकर पर्वत ही टूट पड़ा हो । मानो च्युत होने के समय स्वर्गसे इन्द्र गिरा हो । यही कठिनाईसे राजा भरतकी मूर्छा दूर हुई। भरत विलाप करने लगे, "हे लक्ष्मण, तुम्हारी मृत्युसे निश्चय ही राम जीवित नहीं रह सकते, और यह धरती भी तुम्हारे बिना वैसे ही अनाथ हो जायगी जैसे बिना पनिके स्त्री ॥१-५॥1
[१] "हे भाई, तुम एक बार तो बात करो, तुम्हारे अभावमें विजयश्री विधवा हो गयी। हे भाई, मेरे ऊपर आसमान ही टूट पड़ा है। मेरा हृदय फूटा जा रहा है, तुम अपना मुखड़ा दिखाओ। हे मोर-सी मीठी याणीवाले मेरे भाई, मेरा तो दायाँ हाथ टूट गया है। अरे आज समुद्रका पानी समाप्त हो गया या कछुएकी मजबूत पीठ ही फूट गयी है। इन्द्र लक्ष्मीसे कैसे वंचित हो गया है, यमराजका अन्त कैसे आ पहुँचा है, सूर्यने अपना किरणजाल कैसे छोड़ दिया है, कामदेव कैसे दुर्भाग्यप्रस्त हो उठा है ! अरे, सुमेरु पर्वत कैसे हिल उठा, और कुबेर निधन कैसे हो गया ! अरे सपराज विधविहीन कैसे हो गये । चन्द्रमा कान्तिरहित है और आग ठाट्टी है। धरती कैसे डगमगा गयी. हवा कैसे अचल हो गयी ॥१-८||