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सत्तरिमो संधि सरको नाप-तौलकर ही कोई कदम उठाना उचित होगा । सज्जन लोगोंके साथ लड़ना भी ठीक नहीं । अब प्रयत्नपूर्वक अपने तन्त्रको बचाइए । अर्थशास्त्र में पृथ्वीमण्डल के ये ही कार्य निरूपित हैं। तुम्हारा उद्धार तभीतक किसी प्रकार हो सकता है, जबतक सेना नहीं आती। तबतक सीता सौंप दीजिए, सन्धिका सबसे सुन्दर अषसर यही है ॥१-१०॥
[४] मन्त्रियुद्धोंके कल्याणकारी वचन सुनकर रावण अपने मनमें सोचने लगा कि यह मैंने अच्छा ही किया जो सीता वापस नहीं की, और न ही मन्त्रियोंकी मन्त्रणा मानी । शत्रुसेना एकदम निकट आ चुकी है। एक-दूसरेका कोलाहल सुनाई दे रहा है, ऐसे अवसरपर सन्धिकी बात क्या अच्छी हो सकती है ? ऐसी सन्धिसे तो आदमीका मर जाना अच्छा है। शम्बुकुमार मौतके घाट उतार दिया गया, खर आइत पड़ा है, चन्द्रनखा और कूबारको बेइज्जती हुई। आशाली विधा नष्ट हो पायी । नन्दन वन उजड़ गया, अनुचर और वनरक्षक भी धराशायी हुए। आवास नष्ट हुआ। भाई विभीषण चला गया । अंगद दूत बनकर आया और चला गया, दोनों ओरकी सेनाएँ युद्ध के लिए तत्पर हैं। हस्त और ग्रहस्तका नर-नीलसे विग्रह हो चुका है। इन्द्रजीत और भानुकर्ण बन्दीघरमें हैं । तब तो मैंने इन सब बातोंका प्रतिकार किया नहीं, और अब मैं एकदम निराकुल बैठ जाना चाहता हूँ। फिर भी हे मानिनि, मैं तुम्हारी इच्छाका अपमान नहीं करना चाहता। मैं सन्धि कर सकता हूँ, उसकी शर्त यह है। राम राज्य, रत्न और कोष मुझसे ले लें। और बदलेमें, मुझे तुम्हें और सीता देवीको बाहर कर दें। (मैं सन्धि करनेको प्रस्तुत हूँ ) ॥१-१०॥