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सत्तरवीं सन्धि
कुमारके जीवित होने, पाणिग्रहण और सूर्योका भयंकर शब्द सुनकर रावण इतना जान हुआ मानो उसे शूल लग गया हो ।
[१] सवेरे चन्द्रमारूपी पक्षी उड़ गया, और अन्धकाररूपी मधुकर चला गया। रात्रिरूपी पेड़के नष्ट होनेपर तारारूपी फूल भी झड़ गये। प्रत्यूष ( प्रातः काल ) रूपी महान गज के भ्रमणशील होने पर तरुण सूर्यरूपी महावत ने आरोहण किया। तब देवसमूहको नष्ट करनेवाले रावणको किसीने जाकर बताया, "हे जगतसिंह देव-देव, विशल्या नाम की कोई सुन्दरी आयी हुई है, उसने लक्ष्मण को प्राणदान कर दिया है।" यह सुनकर वह ऐसा भड़का भानो घृतधाराओंसे आग ही भड़क उठी हो। यह सुनकर कोमलवाणी रानी मन्दोदरी भी चिन्तामें पड़ गयी। वह मन ही मन सोचने लगी कि इस अज्ञानीकी बुद्धि आज भी ठिकाने नहीं है, लगता है अब केवली भगवान्का कहा हुआ सच होना चाहता है। काफी सोच विचारके बाद उसने देवताओंको सतानेवाले रावणसे अत्यन्त सद्भावनाके स्वर में कहा, “यदि मरे हुए भी लोग, इस प्रकार एक क्षणके बाद, दूसरे क्षण में जिन्दा होते चले गये तो युद्धमें लक्ष्मणकी सेना अजेय हो जायेगी। कुछ अपनी लंकाका विचार करो । सीता देवीको आज ही वापस कर दो। तोयदवाहनके महान् वंशको इस प्रकार रामकें दावानलमें मत फूँको ।" ॥१-१०॥
[२] "तुमने इन्द्रजीत, भानुकर्ण और मेघवाहनको बन्धनमें डलवा दिया, और हे राजन् स्वजनोंसे विहीन राज्य लेकर
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