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कासहिमो संधि
१५॥ करने जा रही हो ! मानो पैरोंसे आहत होकर अपने अपमानकी याद कर दौड़ी जा रही हो, मानो दुर्जनके सिरसे लगने जा रही हो, मानो इतनी उत्तम थी कि सबके ऊपर जाकर स्थित हो गयी । ऐसी एक भी चीज नहीं थी कि जहाँ धूल न फैलो हो, ऐसा एक भी हाथी नहीं था जो धूलधूसरित न हुआ हो, ऐसा कोई अश्व नहीं था जो मैला न हुआ हो। ऐसा एक भी ध्वज नहीं था जो धूलभरा न हुआ हो, जहाँ भी दृष्टि जाती वहाँ धूल का ढेर दिखाई देता। कोई भी दिखाई नहीं देता, न मनुष्य और न निशाचर । जहाँ भी हाथी का समूह मजता नहीं मोहा दोत जाते ! जहाँ भी निशाचरोंसे भरे रथ थे, वहीं अश्कोंकी हिनहिनाहट सुनाई दे रही थी। जहाँ डोरी पर तीर चढ़ाये हुए धनुर्धारी थे और जहाँ मनुष्य हुँकार भर रहे थे उस महायुद्धमें अच्छेअच्छे शूरवीरोंकी भी मति कुण्ठित हो उठती थी। इतनेमें महागज रूपी पहाड़ोंसे रक्तकी नदी बह निकली ॥१-१०॥
[३] तुरन्त ही महागजोंके गण्ड रूपी शैल-शिखरसे रक्तकी नदी बह निकली जिसमें उड़ते हुए धवलछत्र फेनके समूहके समान जान पड़ते थे। बड़े-बड़े निझरोंसे रक्त रूपी जल यह रहा था। इसमें हाथी और मगर रूपी माह थे। चक्रधर रथ शिंशुमार थे । उसका जल तलवारकी मछलियोंसे शोभित था। उसमें मतवाले महागजोंकी चट्टानोंका समूह था। सफेद चाँवरों रूपी बगुलोंकी कतार शोभा पा रही थी। कितने ही योद्धा उस नदीको पार कर कुछ हलचल मचाते और कितने ही उसमें डूब कर उबर नहीं पाते । कितने ही धूलधूसरित हो गये और कितने ही खूनसे रंग गये, कितने ही गजघदामें पिस कर गिर पड़े। कोई सलटकर हाथीके दाँतोंसे जा लगा मानो