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अहिमो संधि
३९५ विमान में बैठा हुआ वह देवताओं और दानवोंके लिए. अजेय था | चक्रवर्तीके आदेशसे विद्याधर हाथमें अस्त्र लेकर दौड़े। उनके मुख क्रोधकी ज्यालासे चमक रहे थे, उनके अधर चल रहे थे उनकी भौह और नेत्र टेढ़े थे। उसी क्षण वे गरजते हुए दौड़े, मानो आकाशमें जलसे भरे मेध हो । उन्होंने चिल्लाकर कहा "हे दुष्ट पाप क्षुद्र, अपना मुख दिखा। कन्याको लेकर कहाँ जाता है !" यह सुनकर वह विद्याधर क्रोधसे भड़क उठा, मानो सिंह गजपदापर टूट पड़ा हो । उसने पहली ही भिडन्तमें रोमा लिनर-विनर नानी, जैसे ही जैसे मामाजी काव्यदल नष्ट हो जाता है। किसी प्रकार, एक दुसरेको सान्त्वना देकर, वजाम, अस्त्र और वाहनोंके साथ सेना इस प्रकार फिरसे उठी, मानो पहाइपर पानीकी बूंद हो ॥१-९॥
१०] त्रिभुवनआनन्दके अनुचरोंने धनुष निकालकर उनपर तीर चढ़ा लिये | सबने मिलकर उसे रोककर निरस्त्र कर दिया । उसका विमान गिरा दिया, और पताका फाड़ डाली । जब शत्रुसमूहका बह नाश न कर सका, तो उसने पर्णलघु विद्याका सहारा लेकर, अनंगसराको घरतीपर फेंक दिया, मानो शरच्चन्दने अपनो ज्योत्स्नाको फेंक दिया हो। पुनर्वसु भी, भारी भयसे भागा, मानो धनुषसे भीत हरिन हो । अनङ्गसराको न पाकर, अनुचर भी अपने नगरके लिए लौट गये । सारा अन्तःपुर इस तरह उन्मन था, मानो हिमसे आहत कमलोंका वन हो। अनंगसराके बिना दरबार वैसे ही शोभा नहीं दे रहा था, जैसे यौवन कामकथाके बिना। अनुचरोंने जाकर राजासे कहा, 'जल और थल दोनों में हमने उसे देख लिया है, परन्तु हमें कन्या उसी प्रकार दिखाई नहीं दी, जिसप्रकार ज्ञानके बिना सिद्धि नहीं दीख पड़ती ।।१-६।।