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भट्टसहिमो संधि
[११] इसी बीच पूनोंके चाँद जैसे मुखवाली, राजा त्रिभुवन आनन्दकी पुत्रीको पर्णलघुविधासे ऐसे स्थानपर फेंका जहाँ सूना भयंकर बन था। जिसमें हाथियोंके फटे हुए कुम्भस्थल पड़े हुए थे, उनमें सफेद मोती बिखरे हुए पड़े थे । दुर्दर्शनीय तीखे नखोंसे अंकित सिंह जिसमें आते-जाते दिखाई दे रहे थे। जिसमें मूसलके समान हाथी दांतोंसे भग्न सैकड़ों वृक्ष थे। जिसमें विषमतदवाली सैकड़ों नदियाँ थीं। जंगली भैंसे, जिनमें सींगोंसे वप्रक्रीड़ा कर रहे थे । जहाँ केवल बन्दरोंकी आवाज सुनाई पड़ती थी। केवल कोलोंका पुकारना सुन पड़ता था। बनके बैल जोर-जोर से रंभा रहे थे। कौए रो रहे थे और सियार अपनी आवाज कर रहे थे। उस भीषण वनमें कामसरा नामकी एक विशाल नदी थी, जो अपने टेढ़ेपन, गुलाई और विभ्रमके कारण बिलासिनी स्त्रीके समान दिखाई देती थी ॥१८२॥
[१२] उस नदी के किनारे बैठकर, अनंगसरा अपने कुलधर की यादकर रोने लगी, "हे तात, तुम आकर मुझे सान्त्वना हो । हे माँ हे माँ, तू मेरे सिरपर हाथ रख । हे भाई, हे भाई, तुम मुझे अभय वचन दो । बाघ और सिंह आ रहे हैं, मुझे बचाओ । हे विधाता, हे कृतान्त, मैंने क्या किया था, यह दुःख तुमने मुझे क्यों दिखाया ? अब जब मुझे यहाँ मरना ही है तो अच्छा है कि मैं मुखसे जिनवरका नाम लूँ, जिससे संसार समुद्रसे तर सकूँ और अजर-अमर लोकमें पहुँच सकूँ ।" यह कहकर वह समाधि लेकर बैठ गयी। साठ हजार वर्ष तक वह इसी प्रकार तप करती रही। एक दिन सौदास विद्याधरने उसे देखा, उसे लगा जैसे वह नव चन्द्रलेखा हो ।। १-२॥