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भट्टसहिमो संधि [४] सब लोगोंके इस प्रकार जी जानेपर, भरतने द्रोणघनसे पूछा, “हे आदरणीय, यह जल आपको कहाँसे मिला ?यह तरह-तरहकी गन्धों और ऋद्धियोंसे परिपूर्ण है। यह जल वैसे ही ठण्डा है, जैसे हम दूसरोंके कामों में ठण्डे होते हैं। यह जिनभगवान्के शुक्ल ध्यानकी भांति निर्मल है। जिनके शब्दोंकी तरह व्याधिको दूर कर देता है। पण्डितोंके दर्शनकी भाँति आनन्दकारी है।" यह सुनकर राजा द्रोणघनने कहा ( उसका मुख कमल खिला हुआ था, “यह देवांगनाकी भाँति सुन्दर, मेरी लड़की, विशल्याके स्नानका जल है | निःसन्देह, यह अमृत तुल्य है, जिसको लग जाता है उसकी व्याधि दूर कर देता है।" यह सुनकर भरतने राजाका सम्मान किया, और उन्हें अपने घरसे बिदा किया। वह स्वयं जिन-मन्दिरमें गया, जो शाश्वत मोझका स्थान है और जो ऐसा लगता था, मानो स्वर्गसे कोई विमान ही आ पड़ा हो ।।१-९॥
[५] उस सिद्धकूट जिन-मन्दिरमें उसने देवताओं में श्रेष्ठ अरहन्त भगवानकी स्तुति प्रारम्भ की। उन अरहन्त भगवान् की जो त्रिलोक चक्रके स्वामी हैं, जो कषायोंसे रहित हैं, जो तृष्णा और निदासे दूर हैं, जो सिंहासनपर प्रतिष्ठित हैं, जिनपर सुन्दर चामर दुलते रहते हैं। जिनपर सफेद छत्र हैं। जो घार घातिया कोका विनाश कर चुके हैं। जिनके पीछे भामण्डल स्थित है। प्रहारसे जो हीन हैं, विश्वके प्रति जो करुणाशील हैं। जिनके हृदयमें तीनों लोकोंकी लक्ष्मी स्थित है। जिन्होंने देवताओंके लोकका पालन किया है । मोहरूपी अन्धे असुरको जिन्होंने नष्ट कर दिया है । जन्मरूपी लताको जो जड़से उखाड़ चुके हैं, संसाररूपी महानको जो नष्ट कर चुके हैं, जिन्होंने कामदेवके घमण्डको चूर-चूर कर दिया है। इन्द्रियोंकी