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सट्टियो संधि
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हुए राम कहने लगे, “प्रिय यमने, तुम्हारा और हमारा क्या कुछ नहीं किया। कहाँ तो माता गयो और नहीं मालूम पिता जी कहाँ गये। हे हतभाग्य विधाता, तुम्हीं बताओ इस प्रकार हम भाइयोंका विछोह कराकर, तुम्हें क्या मिला ? तुम्हारी कौन सो कामना पूरी हो गयी ॥१-१३॥
[४] खिन्न राजा राम लक्ष्मणके गुणोंको याद कर रोने लगे । वह कह रहे थे, "शत्रराजा के चक्र से आहत हो जाना अच्छा ? अच्छा हो शीघ्र हो अयकाल आ जाय ! अच्छा हो मैं कालकूट विषका पान कर लूँ, अच्छा है कि मैं यमके शासनको अपनी आँखोंसे देख लूँ। अच्छा है थोड़ी देरके लिए मैं अस्थिपञ्जरमें सो लूँ। अच्छा है यसकी दाइके भीतर सो जाऊँ, अच्छा है, कोई जलती हुई आगमें धक्का दे दे। अच्छा है घूमते हुए बडवानल में पड़ जाऊँ! अच्छा है मेरे सिर पर वश गिर पड़े, अच्छा है मन चाही होनहार मेरा काम तमाम कर दे, अच्छा है यममहिषके असह्य चपेट में आ जाऊँ, अच्छा है भीपण दृष्टिवाळा महाकाल रूपी सौंप मुझे इस के। अच्छा है सिंह अपने नखोंसे मुझे आहत कर दे, अच्छा है कलिकालरूपी शनीचरकी नजर मुझ पर पड़ जाय ! अच्छा हो मैं खुदको हाथी दाँतोंकी नोंकोंसे टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ। अच्छा हो मुझे नरकके दुःख देखने पड़ें, परन्तु भाईका बियोग न हो" ॥१-९॥
[५] राघवचन्द्रके इस प्रकार विलाप करने पर राजा सुप्रीष भी फूट-फूट कर रो उठा। राजा भामण्डल भी मुक्तकण्ठसे रोया और हनुमान् भी । चन्दोदरपुत्र भी मुक्त स्वरले रोया और व्याकुल विभीषण भी रोया । अंग और अंगद भी मुक्त कण्ठसे रोये, और युद्धमें धीर तार सुसेन भी रोये । गय, गवय और गवाक्ष भी मुक्त कण्ठसे रोये 'और नन्वन, दुश्वि