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सम संधि
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अनवरत धारा बह रही थी, वह कह रहा था, "हे सहोदर कुम्भकर्ण, हे मय मारीच महोदर, हे इन्द्रजीत मेघवाहन, हे अनिर्दिष्ट साधन यमघंट और हे दानवोंके संहारक सिंहनितम्ब जम्बुमाली, हे सुत और सारण ! आखिरकार बड़े कष्टसे रावणने अपना दुःख दूर किया। बड़ी कठिनाई से वह शोक-समुद्रसे अपनेआपको तार सका। उसने अपने मनमें सोचा, "तीखे नत्रों और लम्बी पूँछ वाले सिंहका जंगलमें कौन सहायक होता है। रहे रहे, जो बाकी बचा है। तब भी मैं उन्हें सीता नहीं सका | क्यों कहते हो कि मैं अकेला हूँ। नहीं, मैं अकेला नहीं हूँ, मेरी सहायता करनेवाली मेरी बीस भुजाएँ हैं ।। १-६॥
[१०] और फिर, वानरसेना में जो इने-गिने योद्धा थे, उन्हें मैंने युद्ध भूमिमें शक्तिसे आहत कर दिया है। अब अकेला राघव होगा, कल मैं उसे मजा चखा दूँगा । कल मैं उसे और वह मुझे जान लेगा । तोरोंकी बौछारसे एक-दूसरेके शरीर भेद दिये जायेंगे। कल उसके और मेरे बीच एक ही अन्तर होगा, कल या तो उसका अहंकार चूर-चूर होगा, या मेरा । कल या तो उसकी अयोध्यानगरी में हर्षवधाया होगा या फिर मेरी लंका नगरीमें। कल या तो मन्दोदरी रोयेगी, या फिर सीवा शोक-सागरमें डूब जायेगी। कल या तो उसकी साजसज्जित सेना हर्षसे नाचेगी, या मेरी कल मरघटकी धकधकाती आगमें या तो वह जलेगा या मैं। या तो वह, या फिर मैं, खरदूषण और शम्बुकका पथ देखूँगा । अथवा मैं या वह, कल युद्धके आँगन में विजय लक्ष्मीरूपी वधूका आलिंगन करूँगा ॥ १-२ ॥
[११] इसी अवधि में चरमशरीर रामने अपने-आपको धीरज बँधाया । उन्होंने किष्किन्धाराजको समझाया । बहुझानी