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छासहिमो संधि [4] तब, अपनी सेनाको अभय बधन देकर रावणने अपना रथ आगे बढ़ाया। मामी उसका मन कर रहा था कि मैं अभिनव विजयलक्ष्मीके स्तनोंका मर्दन करूँ। वह इस प्रकार आगे बढ़ा जैसे आग पेड़ों पर, या सिंह हाथियों पर झपटता है। वह नरश्रेष्ठ नल और नीलसे भिड़ने ही वाला था कि विभीषणने दोनोंके बीच में अपना रथ अड़ा दिया। वह इस प्रकार रावणके सम्मुख पहुँचा, जिस प्रकार वर्षाकालमें मेघ । दोनों ही सर्पकी भाँति भयंकर, सिंह और बाघकी भाँति प्रचण्ड थे । गरमते हुए मतवाले हाथीके समान उनके मस्तक आर्द्र थे । लम्बी पूंछके सिंहकी भाँति वे रोषसे भरे हुए थे। महीधर की तरह अडिंग, और समुद्रकी भाँति उनकी आवाज गम्भीर थी। दोनोंके पास बड़े-बड़े रथ थे। दोनों हाथों में धनुष थे। दोनोंकी पताकाओं में राक्षस अंकित थे, दोनों ही युद्धका भार उठाने में समर्थ थे। दोनों ही महीधरकी भाँति किसी भी तरह चलायमान नहीं थे। दोनों ही कुलीन और महानुभाव थे। दोनों धीर वोर थे और बिजलीकी भौति देगशील थे । दोनों ही के चरण कमल नव जलजातकी भाँति कोमल थे। दोनों ही के वक्ष विशाल थे। दोनोंके बाहुदण्ड विशाल और प्रचण्ड थे। दोनों ही जीवनको आशा छुड़ा देने वाले और युद्धमें प्रचण्ड थे। उन दोनों में-से रावणमें केवल यही एक दोष था कि उसके मनसे सीतादेवी एक क्षणके लिए भी दूर नहीं होती थीं ॥१-१०॥
[६] देवगनाओंको सतानेवाले रावणने क्रोधसे भरकर पहली ही भिड़न्समें विभीषणको ललकारा, अरे शुत्र मूर्ख और