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छियासठयों सन्धि सूर्योदय होते ही युद्धके निशा आतुर दोन दोगानों में कोता हल होने लगा । राम और राजग को सेनाएँ फिरसे भिड़ गयीं।
[१] उत्तम हाथी, अश्व, योद्धा, रथ, सिंह, विमान और दूसरे वाहन चल पड़े । युद्धके नगाड़े बज उठे। कोलाहल होने लगा। सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं। क्रोधसे अभिभूत निशाचर और वानर-सेनाओंमें महायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके हाथमें निशाचर संहारक अस्न थे। दोनों ही सेनाएँ अमरांगनाओंको ग्रहण करने में समर्थ थी। दोनों ही सेनाएँ देवसमूहको सन्तुष्ट कर चुकी थी। दोनोंने वीरता और जयश्री को पानेका मार्ग प्रशस्त किया था। दोनों ओर मतवाले हाथी गरज रहे थे। और पवनकी चालवाले अश्य कषच पहने हुए थे। दोनों सेनाएँ गवसे उद्धत थीं। उनके हौसले ऊँचे थे। विमान घण्टों की ध्वनियोंसे गूंज रहे थे। दोनों सेनाएं रासयुक्त रथोंकी पीठों पर आसीन थीं। दोनों पूर्व पैर और ईर्ष्यासे भरी हुई थी। दोनोंके पास ऊँचे सफेद छत्र और अजवण्ड थे । सैनिक अपने विशाल बाहुदण्डोंसे धनुष की दंकार कर एक दूसरे पर तीरोंकी बौछार कर रहे थे। उनके हाथों में तीखी और पैनी तलवार थीं। पहली ही भिडन्तमें चरणोंसे आहत धूल इस प्रकार उठी, मानो सबनका मुख मैला करनेके लिए, कोई खल जन ही उठा हो ।।१-१०॥ __ [२] खुरोंसे खोदी हुई धूल, मानो महावोंके इरसे नष्ट हो रही थी ! वहाँसे हटाया जाने पर, मानो वह देवताओंसे पुकार