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अट्टवण्णासमो संधि अच्छी तरह समझ-बूझकर यदि सीतामें अपनी आसक्ति छोड़ सके, तो उन्हें मैं तीनखण्ड धरतीका एकाधिकार दूं ( एकछत्र शासन), चार ऋद्धियाँ और सात रत्न-सामन्त, मन्त्री, पैदलसेना,रथवर,नरवर, रथ और अश्व अन्तःपुर परिजन, सगोत्री, पत्नी, बन्धु-बान्धवोंके साथ मैं भी दास हो जाऊँगा ? इसके अतिरिक्त कुशद्वीप, समस्त चीरवाइन, वज्जर चीन, छोहार देश, बर्बर, कुल यवन, सुवर्णद्वीप, वेलन्धर, इंस और सुवेल द्वीप ले लें। जहाँतक विजया पर्वत है, वहाँ तकके प्रदेश वह ले सकते हैं, केवल तीन चीजोंको छोड़ कर, राक्षण, मन्दोदरी और सीता देवी ॥ १-५॥
[१५ ] यह सुनकर अंगद भाग-जयूला हो जटा । पन्द्रजीदको बुरा-भला कहा, "दुष्ट नीच परनिन्दक, दूसरेकी स्त्रीको चाहनेवाली तेरी जीभके सौ टुकड़े क्यों नहीं हो गये है स्रीया जिसकी पत्नी है, वह यदि उसे वापस नहीं मिलती, तो राम के रहते, तुम्हारा जीवित रहना असम्भव है । जो दूसरों को सैकड़ों अपमानोंसे बचाता है, क्या वह स्वयं अपमानित होकर, चुपचाप बैठा रहेगा ? इसके बाद, अंगदने वे सन्देश भी कह सुनाये जो लक्ष्मण, विभीषण, सुमीष और हनुमान एवं भामण्डलने दिये थे। अंगद वापस राम-लक्ष्मणके पास आ गया। उसने बताया, हे देव ! रावण सन्धि नहीं करना चाहता, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार 'अमी' शब्दके ईकारकी स्वरके साथ सन्धि नहीं होती !' ! १-७॥ ।
अंगद की बात सुनकर जय और यशके लोभी कैकेयी और अपराजिताके पुत्र राम एवं लक्ष्मण सहसा गुस्सेसे भर उठे। दोनोंने अपने अतुल प्रतापी धनुष चढ़ा लिये ॥८॥