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एकसहिमो संधि कर रहे थे। दोनोंने, फिर एक दूसरेको विरथ कर दिया, दोनों विमान वाहनो में बैठ गये। दोनों ही अपने स्वामीसे प्राप्त दान
और सम्मानके ऋणको चुका रहे थे। आक्रमण और प्रत्याक्रमण में दोनों ही, जिन भगवान का नाम ले रहे थे" ।। १-६॥
[११] इसी बीच, नल को भी झुका देने वाला हस्त आया । प्ररूपो गदभार हो सरह हार जाती थी। लाड़ोंकी ध्वनिके साथ उसने कोलाहल मचा दिया। शंख दष्टि और काल वाद्य फूंक दिये गये। वह सिहोंके झुण्डको मसमसा चुका था, उसका वक्षस्थल कठोर मजबूत, और भयंकर था। उसकी सुन्दर करधनी हिल-डुल रही थी । उसका मुख पूर्णिमाकै चाँदकी तरह सुन्दर था। उसके कानों में सुन्दर मणि कुण्डल हिलडुल रहे थे । भौंहोंसे भयंकर रावणके उस अनुचरने तरकससे, दुर्निवार विद्धपण तीर निकाल लिया । डोरी चढ़ाने मात्रसे वह सौ प्रकारका हो जाता था। छोड़ते ही वह हजाररूपका हो जाता था, और थोड़ी ही देर में उसका रहस्य समझना कठिन हो जाता था । जल, थल, पाताल और आकाशमें बाणोंका समूह दिखाई दे रहा था। इस प्रकार शत्रुरूपी जलका पानी तोररूपी बूंदोंसे नल रूपी पर्वत पर खूब बरसा ।। १-९॥
[१२ । जब हस्तके बाणजालने समूचे दिशाओंके अन्तरको घेर लिया तो दुर्दर्शनीय नलने अपना धनुष तान लिया। उसने खींचकर तीर मारा तो उससे आहत होकर, हस्त घायल होकर धरती पर गिर पड़ा, मानो रावणका दायाँ हाथ ही टूट गया हो, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किरणोंसे अन्धकारका जाल या मीन राशिमें स्थित शनीचरसे दुनिया, या जिस प्रकार दधिमुख नगर में ऋषि और कन्याओंके उपसर्गके अवसर पर हनुमानने आकाशमें समुद्रजलको तितर-बितर कर दिया था।