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चरसहिमो संधि
110 प्रहार करते थे, अपना अस्त्र नहीं भूलते थे | वे अपने अहंकारका प्रदर्शन करते थे, पीठ नहीं दिखाते थे। उनके प्राण भले ही शिथिल हो उठते, परन्तु धनुषकी मुट्ठी ढोली कभी नहीं पड़ती थी। वे तीर छोड़ते थे, अपना धीरज उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। वे पराभयको बचा रहे थे. अपने भारी-भाली जन्में जरा भी चिन्ता नहीं थी। वे तीरसे आहत होनेके लिए प्रस्तुत थे, परन्तु अपने कुलको कलंक नहीं लगने देना चाहते थे। उनके तीर जरूर मुड़ जाते थे परन्तु उन्होंने अपना मुख कभी नहीं मोड़ा। उनके धनुषकी छोरी श्रीण हो जाती थी, परन्तु उनका दुनिवार सिर कभी नहीं झुका । उनकी पताकाएँ अवश्य गिर जाती थी, परन्तु उनका हृदय और पुरुषार्थ कभी नहीं गिरा। खिम्न अश्वोंसे जुता रथ भले ही नष्ट हो जाये, पर उसमें बैठे हुए योद्धाका मान कभी नष्ट नहीं हो सका । शत्रुपक्षके लिए अत्यन्त कठिन बमोदर और राममें सुमुल संग्राम हो रहा था। विधाता, दोनों में से किसे गौरव देता है, कहना कठिन था। जनमें से एक भी न तो स्वयं जीत रहा था, और न दूसरेको हरा पा रहा था ॥१२॥
[] इधर भी, भौंहोंसे भयंकर मुख महाबाहु और सिंहदमनकी आपसमें भिड़न्त हो गयी। दोनों ही, एक-दूसरेके प्रति काध से अभिभूत थे। दोनों मलय और सुवेल पर्वतके समान दिखाई दे रहे थे । सिंहदमनने 'मारा-मारो' कहकर महावाहुके सिरमें मुद्गर दे मारा। यह धरतीपर गिर पड़ा। फिर क्या था, शत्रुसेनामें खलबली मच गयी। उसी अन्तरमें राम का अनुचर महाबाहु होशमें आ गया। वह क्रोधसे तमसमा रहा था। उसने भी मुद्गरसे ही उसके वक्षपर इस तरह चोट की मानो नीलकमलसे चोट की हो। ठीक इसी समय,