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पडसाहेमा संधि
18 विजय और स्वयंभू, ये दोनों सुभट आपसमें युद्ध करने लगे। युद्ध-भूमिमें वे ऐसे घूम रहे थे, मानो चंचल बिजलियोंका समूह हो । आखिरकार, अपने कुलके सूर्य, रावणके अनुचर स्वयम्भूने लाठीसे विजयको आहत कर दिया, वाह ऐसे गिर पड़ा मानो उसकी पूंछ कट गयी हो ॥ १-९॥
[४] जब इस प्रकार विजय और स्वयम्भू भी मारे गये तो जो खपितारि और बीर संकाह थे, वे भी रोमांचित होकर जा भिड़े । मानो खरदूषण और नारायण युद्ध में भिड़ गये हों। मानो महोदर रावण और इन्द्र लड़ रहे हों, मानो सूंड उठाये हुए दो मतवाले हाथी हो । इसी बीचमें सुरवरोंके लिए अशक्य, संकोड्ने पहले अपना चक्र छोड़ा। वह गगनांगनमें जलता हुआ जा रहा शाजले अस्ताचल पर सूर्य-रस हो। बहनक खपितारि राजा के वक्षमें जाकर लगा। वह कमलिनी पत्रकी तरह वहींका वहीं नष्ट हो गया। तब उसने भी शत्रुपक्ष पर अपना जयकरण शस्त्र फेंका, वह संकोड्के पास पहुँचा। उससे उसका सिर उसी प्रकार कट गया जिस प्रकार हंस जिसमें भौरे गुनगुना रहे हैं, ऐसे नील कमलको काट देता है। उसका सिर कट गया और धड़ अब भी घूम रहा था, परन्तु उसके मुखसे वीरता भरे वाक्य निकल रहे थे। वह अपने स्वामीकी आज्ञाका पालन कर रहा था, गिरकर भी वह बेचारा योद्धा प्रहार कर रहा था ।।१-६॥
[५] रामका अनुचर संकोह जब इस प्रकार मारा गया, तब युद्ध में अजेय वितापी दौड़ा। उसने कहा, "जब तक मैं यहाँ हूँ, तबतक तुम कहाँ जा सकते हो, अपना रथ सामने बढ़ाओ, तुमने संकोहको जिस प्रकार छलसे मार डाला, उसी प्रकार लो अब मुझपर आक्रमण करो-अपने याहुबलसे ।" यह वचन