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पलादिमो संधि [१०] यह सुनते ही मालिने अविलम्ब, तीरोंके जालसे इनुमानको ढक दिया। मानी अनेक दुर्जनोंने सजनको घेर लिया हो, मानो पावसमें मेघोंने सूर्यको ढक लिया हो । तष हनुमानने भी आठ तीर छोड़े, जो फैलते-मारते हुए दिशाओंके भी छोरों तक पहुँच गये। म त नापास समः पा २ थे, और न धरतीपर । न वे ध्वजाओंपर ठहर रहे थे, और न अश्योंसे जुते हुए रथोंपर । आगे-पीछे सब ओर, वे अप्रमेय थे। जहाँ भी दृष्टि जाती, वहाँ बाण-ही-बाण दिखाई दे रहे थे। एक ही क्षणमें मालि वहाँसे हट गया, और तष वमोदरने अपना रथ आगे बढ़ाया । उसने हनुमानको सामने ललकारा, "हे पाप, तू कहाँ जाता है, मैं तुम्हारा भयकाल आ गया हूँ, तुम्हें इतने में ही घमण्ड हो गया कि युद्ध में तुमसे मालि हार गया। मैं योद्धाओंका मर्दक बजोदर हूँ, तुम पवनसुत हनुमान हो, भयभास्वर हम दोनों लड़ें, थोड़ा मुरासुर भी हमारा मंग्राम देख लें" ॥१-६॥
[११] वे दोनों ही, इस प्रकार गरज रहे थे मानो निरंकुश मतवाले दो महागज हौं। दोनों बेजोड़ मल्ल एक-दूसरेसे भिढ़ गये। दोनों शत्रुओंके मनमें शंका उत्पन्न कर देते थे। दोनोंका अभिमान अखण्ड था। दोनोंका वंश शुद्ध था। दोनों सैकड़ों युद्धोंमें प्रशंसा प्राप्त कर चुके थे। फिर भी पवनसुत हनुमानने, जिसके पास प्रचण्ड सूर्यके समान कान्ति सम्पन्न रथ था, दो ही तीरोंसे उसके धनुषको इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो वस्रोदरका हृदय ही कट गया हो। वह दूसरा धनुष अपने हाथमें ले ही रहा था कि इसी बीचमें, हनुमानने उसके रथके सौ टुकड़े कर दिये । जब तक वह दूसरे रथ पर चढ़नेका प्रयास करता, तब तक उसने धनुषके टुकड़े टुकड़